सु꣣ता꣡ इन्द्रा꣢꣯य वा꣣य꣢वे꣣ व꣡रु꣢णाय म꣣रु꣡द्भ्यः꣣ । सो꣡मा꣢ अर्षन्तु꣣ वि꣡ष्ण꣢वे ॥७६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सुता इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्यः । सोमा अर्षन्तु विष्णवे ॥७६६॥
सु꣣ताः꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । वा꣣य꣡वे꣢ । व꣡रु꣢꣯णाय । म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । सो꣡माः꣢꣯ । अ꣣र्षन्तु । वि꣡ष्ण꣢꣯वे ॥७६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
(सुताः) आचार्य द्वारा प्रेरित (सोमाः) ज्ञानरस (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए, (वायवे) प्राण के लिए, (वरुणाय) वरणीय मन के लिए, (मरुद्भ्यः) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप प्राणों के लिए, अर्थात् इन सबके प्रति (विष्णवे) यज्ञार्थ (अर्षन्तु) पहुँचें ॥३॥
गुरुजनों से प्रदत्त ज्ञानरसों से विद्यार्थियों के आत्मा, प्राण, मन, इन्द्रियाँ सब तरङ्गित होकर देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान रूप यज्ञ के लिए समर्थ हो जाते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
(सुताः) आचार्येण अभिषुताः, प्रेरिताः (सोमाः) ज्ञानरसाः (इन्द्राय) जीवात्मने, (वायवे) प्राणाय, (वरुणाय) वरणीयाय मनसे, (मरुद्भ्यः) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय-रूपेभ्यः दशप्राणेभ्यः, एतान् प्रति इत्यर्थः (विष्णवे) यज्ञार्थम्। [यज्ञो वै विष्णुः श० १।१।२।१३।] (अर्षन्तु) गच्छन्तु ॥३॥
गुरुभिः प्रदत्तैर्ज्ञानरसैर्विद्यार्थिनाम् आत्मा, प्राणः, मनः इन्द्रियाणि सर्वाण्यपि तरङ्गितानि भूत्वा देवपूजासंगतिकरणदानरूपाय यज्ञाय कल्पन्ते ॥३॥