उ꣡प꣢ शिक्षापत꣣स्थु꣡षो꣢ भि꣣य꣢स꣣मा꣡ धे꣢हि꣣ श꣡त्र꣢वे । प꣡व꣢मान वि꣣दा꣢ र꣣यि꣢म् ॥७६१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उप शिक्षापतस्थुषो भियसमा धेहि शत्रवे । पवमान विदा रयिम् ॥७६१॥
उ꣡प꣢꣯ । शि꣣क्ष । अपतस्थु꣡षः꣢ । अ꣣प । तस्थु꣡षः꣢ । भि꣣य꣡स꣢म् । आ । धे꣣हि । श꣡त्र꣢꣯वे । प꣡व꣢꣯मान । वि꣣दाः꣢ । र꣣यि꣢म् ॥७६१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा में परमात्मा और राजा को सम्बोधन किया गया है।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (पवमान) पवित्रताप्रदायक, सर्वान्तर्यामी सोम परमात्मन् ! आप (अप तस्थुषः) हमसे दूर स्थित सद्गुणों को (उप शिक्ष) हमारे समीप ले आओ। (शत्रवे) काम, क्रोध आदि शत्रु के लिए (भियसम्) भय (आधेहि) प्रदान करो और हमें (रयिम्) सत्य, अहिंसा, न्याय आदि दिव्य सम्पत्ति (विदाः) प्राप्त कराओ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (पवमान) गतिमय, कर्मवीर राजन् ! आप (अप तस्थुषः) हमसे दूर होकर विरोधी पक्ष में स्थित हुए वीरों को (उप शिक्ष) दण्डित करो, (शत्रवे) शत्रु के लिए (भियसम्) भय (आधेहि) उत्पन्न करो और हमें (रयिम्) धन, धान्य, सुवर्ण आदि सम्पत्ति (विदाः) प्राप्त कराओ ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
जैसे परमेश्वर काम, क्रोध आदि शत्रुओं को पराजित करके स्तोता को सद्गुणों की सम्पदा प्रदान करता है, वैसे ही राष्ट्र में राजा को चाहिए कि शत्रुओं को धूल में मिलाकर प्रजा को सब धन, धान्य आदि प्रदान करे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ प्रथमायामृचि परमात्मा नृपतिश्च सम्बोध्यते।
प्रथमः—परमात्मपक्षे। हे (पवमान) पवित्रताप्रदायक सर्वान्तर्यामिन् सोम परमात्मन् ! त्वम् (अपतस्थुषः) अस्मद्दूरे स्थितान् सद्गुणान् (उपशिक्ष) अस्मत्समीपम् आनय। (शत्रवे) कामक्रोधादिकाय रिपवे (भियसम्) भीतिम् (आधेहि) कुरु। अस्मभ्यं च (रयिम्) सत्याहिंसान्यायादिरूपां दिव्यां सम्पदम् (विदाः) प्रापय ॥ द्वितीयः—नृपतिपक्षे। हे पवमान गतिमय कर्मशूर राजन् ! [पवते गतिकर्मा निघं० २।१४।] त्वम् (अपतस्थुषः) अस्मत्सकाशादपगत्य विरोधिपक्षे स्थितान् वीरान् (उपशिक्ष) दण्डय, (शत्रवे) रिपवे (भियसम्) भयम् (आधेहि) उत्पादय। अस्मभ्यं च (रयिम्) धनधान्यसुवर्णसम्पत्तिम् (विदाः२) लम्भय ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
यथा परमेश्वरः कामक्रोधादिकान् शत्रून् पराजित्य स्तोत्रे सद्गुणसम्पत्तिं प्रयच्छति तथैव राष्ट्रे राजा शत्रून् धूलिसात्कृत्य प्रजायै सर्वं धनधान्यादिकं प्रयेच्छत् ॥१॥