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प्र꣡त्यु꣢ अदर्श्याय꣣त्यू꣢३꣱च्छ꣡न्ती꣢ दुहि꣣ता꣢ दि꣣वः꣢ । अ꣡पो꣢ म꣣ही꣡ वृ꣢णुते꣣ च꣡क्षु꣢षा꣣ त꣢मो꣣ ज्यो꣡ति꣢ष्कृणोति सू꣣न꣡री꣢ ॥७५१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्रत्यु अदर्श्यायत्यू३च्छन्ती दुहिता दिवः । अपो मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी ॥७५१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । उ꣣ । अदर्शि । आयती꣢ । आ꣣ । यती꣢ । उ꣣च्छ꣡न्ती꣢ । दु꣣हिता꣢ । दि꣣वः꣢ । अ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । मही꣢ । वृ꣣णुते । च꣡क्षुषा꣢꣯ । त꣡मः꣢꣯ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । कृ꣣णोति । सून꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ ॥७५१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 751 | (कौथोम) 1 » 2 » 14 » 1 | (रानायाणीय) 2 » 4 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ३०३ पर प्राकृतिक उषा के पक्ष में व्याख्यात की जा चुकी है। यहाँ आध्यात्मिक उषा का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आयती) आती हुई, (उच्छन्ती) हृदय-प्राङ्गण में उदित होती हुई, (दिवः दुहिता) तेजस्वी परमात्मा की पुत्री के समान विद्यमान अध्यात्मप्रभा (चक्षुषा) अपने दिव्य प्रकाश से (तमः) मोहरूप अन्धकार को (अप उ वृणुते) दूर कर रही है। (सूनरी) उत्कृष्ट नेतृत्व करनेवाली यह अध्यात्मप्रभारूप उषा (ज्योतिः) विवेकख्यातिरूप ज्योति को (कृणोति) उत्पन्न कर रही है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा की उपासना से हृदय में प्रकट होती हुई दिव्यप्रभा समस्त तामसिकता के जाल को विच्छिन्न करके अन्तःकरण को निर्मल बना देती है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३०३ क्रमाङ्के प्राकृतिक्या उषसः पक्षे व्याख्याता। अत्राध्यात्मिकी उषा वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आयती) आगच्छन्ती (उच्छन्ती) हृदयप्राङ्गणे उदयं भजमाना (दिवः दुहिता) द्योतमानस्य परमात्मनः पुत्रीव विद्यमाना अध्यात्मप्रभारूपिणी उषाः (प्रति अदर्शि उ) उपासकेन मया अनुभूताऽस्ति खलु। (मही) महती एषा अध्यात्मप्रभा (चक्षुषा) चक्षसा, स्वकीयेन दिव्यप्रकाशेन (तमः) मोहान्धकारम् (अप उ वृणुते) अपाकरोति। (सूनरी) सुनेत्री एषा अध्यात्मप्रभारूपिणी उषाः (ज्योतिः)विवेकख्यातिरूपं ज्योतिः (कृणोति) जनयति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मोपासनेन हृदये प्रादुर्भवन्ती दिव्यप्रभा सर्वं तमोजालं विच्छिद्यान्तःकरणं निर्मलं करोति ॥१॥

टिप्पणी: २. ऋ० ७।८१।१ ‘अपो॒ महि॑ व्ययति॒ चक्ष॑से॒’ इति पाठः। साम० ३०३।