अ꣣यं꣡ त꣢ इन्द्र꣣ सो꣢मो꣣ नि꣡पू꣢तो꣣ अ꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ए꣡ही꣢म꣣स्य꣢꣫ द्रवा꣣ पि꣡ब꣢ ॥७२५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अयं त इन्द्र सोमो निपूतो अधि बर्हिषि । एहीमस्य द्रवा पिब ॥७२५॥
अ꣣य꣢म् । ते꣣ । इन्द्र । सो꣡मः꣢꣯ । नि꣡पूतः꣢꣯ । नि । पू꣣तः । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । आ । इ꣣हि । ईम् । अस्य꣢ । द्र꣡व꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥७२५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १५९ क्रमाङ्क पर भक्तिरस के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ ज्ञान-रस का विषय प्रस्तुत है।
आचार्य कह रहा है—हे (इन्द्र) शिष्य के अन्तरात्मन् ! (अयम्) यह (सोमः) अध्यात्म-विद्या का रस (ते) तेरे लिए (बर्हिषि अधि) विद्या-यज्ञ में (निपूतः) अत्यधिक पवित्र रूप में उपस्थित है। (एहि) आ, (ईम्) इसके प्रति (द्रव) झपट, (अस्य) इस अध्यात्म-विद्या के रस को (पिब) पान कर ॥१॥
जिसका आत्मा अध्यात्मविद्या के ग्रहण के लिए अत्यधिक उत्कण्ठित है, वही गुरु के पास से ब्रह्मज्ञान पा सकता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५९ क्रमाङ्के भक्तिरसविषये व्याख्याता। अत्र ज्ञानरसविषयः प्रस्तूयते।
आचार्यो ब्रूते—हे (इन्द्र) शिष्यस्य अन्तरात्मन् ! (अयम्) एषः (सोमः) अध्यात्मविद्यारसः (ते) तुभ्यम् (बर्हिषि अधि) विद्यायज्ञे (निपूतः) नितरां पवित्रीकृतोऽस्ति। (एहि) आगच्छ, (ईम्) एनं प्रति (द्रव) त्वरस्व, (अस्य) एतस्य अध्यात्मविद्यारसस्य (पिब) आस्वादनं कुरु ॥१॥
यस्य आत्माऽध्यात्मविद्याग्रहणाय प्रकाममुत्कण्ठितः स एव गुरोः सकाशाद् ब्रह्मज्ञानमधिगन्तुमर्हति ॥१॥