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य꣢स्मि꣣न्वि꣢श्वा꣣ अ꣢धि꣣ श्रि꣢यो꣣ र꣡ण꣢न्ति स꣣प्त꣢ स꣣ꣳस꣡दः꣢ । इ꣡न्द्र꣢ꣳ सु꣣ते꣡ ह꣢वामहे ॥७२३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यस्मिन्विश्वा अधि श्रियो रणन्ति सप्त सꣳसदः । इन्द्रꣳ सुते हवामहे ॥७२३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य꣡स्मि꣢꣯न् । वि꣡श्वा꣢꣯ । अ꣡धि꣢꣯ । श्रि꣡यः꣢꣯ । र꣡ण꣢꣯न्ति । स꣣प्त꣢ । स꣣ꣳस꣡दः꣢ । स꣣म् । स꣡दः꣢꣯ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । सु꣡ते꣢ । ह꣣वामहे ॥७२३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 723 | (कौथोम) 1 » 2 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 2 » 1 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में गुरु से उपदेश किये हुए शिष्य परमात्मा का आह्वान कर रहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यस्मिन् अधि) जिसके अधिष्ठातृत्व में (विश्वाः श्रियः) सब शोभाएँ विद्यमान हैं, और जिसकी (सप्त संसदः) सात ऋत्विज्, सात दिशाएँ, सात प्रकार की सूर्यकिरणें, सात छन्द, सात मन-बुद्धि-सहित ज्ञानेन्द्रियाँ और सात आकाशस्थ ऋषि (रणन्ति) स्तुति कर रहे हैं, उस (इन्द्रम्) जगदीश्वर को (सुते) उपासना-यज्ञ में या जीवन-यज्ञ में, हम (हवामहे) पुकारते हैं ॥ सात ऋत्विज् ऋग्वेद २।१।२ में इस प्रकार परिगणित किये गये हैं—होता, पोता, नेष्टा, अग्नीत्, प्रशास्ता, अध्वर्यु और ब्रह्मा। सोमयाग के सात ऋत्विज् हैं—तीन उद्गाता, एक होता, एक मैत्रावरुण, एक ब्राह्मणाच्छंसी और एक अच्छावाक ॥ सात दिशाएँ हैं—पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ध्रुवा, ऊर्ध्वा और केन्द्र। आकाश में स्थित सप्तर्षियों के नाम ये हैं—मरीचि, वसिष्ठ, अङ्गिरस्, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु ॥ ऋग्वेद ९।११४।३ में सात-सात वस्तुएँ गिनाते हुए कहा गया है कि सात दिशाएँ हैं, सात होता ऋत्विज् हैं, सात आदित्य-किरणें हैं ॥ यजुर्वेद २६।१ में सप्त संसद् बतायी गयी हैं—अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, आपः और वरुण। आठवीं भूतसाधनी पृथिवी कही गयी है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

ब्रह्माण्ड में स्थित सभी दिशा, विदिशा आदि पदार्थ, शरीर में स्थित मन, बुद्धि आदि और यज्ञ में स्थित सब ऋत्विज् जगदीश्वर की ही महिमा का गान करते प्रतीत होते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ गुरुणानुशिष्टाः शिष्याः परमात्मानमाह्वयन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यस्मिन् अधि) यम् अधिष्ठाय (विश्वाः श्रियः) सर्वाः शोभाः विद्यन्ते, यं च (सप्त संसदः२) सप्तऋत्विजः, सप्तदिशः, सप्तविधाः सूर्यरश्मयः, सप्त छन्दांसि, सप्त मनोबुद्धिसहितानि ज्ञानेन्द्रियाणि, सप्त आकाशस्थाः ऋषयः (रणन्ति) स्तुवन्ति। [रण शब्दार्थः भ्वादिः।] तम् (इन्द्रम्) जगदीश्वरम् (सुते) उपासनायज्ञे जीवनयज्ञे वा वयम् (हवामहे) आह्वयामः ॥ सप्त ऋत्विजस्तावद् ऋग्वेदे २।१।२ इत्यत्र एवं परिगणिताः—होता, पोता, नेष्टा, अग्नीत्, प्रशास्ता, अध्वर्युः, ब्रह्मा इति ॥ यद्वा, त्रयः उद्गातारः, होता, मैत्रावरुणः, ब्राह्मणाच्छंसी, अच्छावाकश्च इत्येते सोमयागीयाः सप्त ऋत्विजः ॥ सप्त दिशस्तावत् प्राची, प्रतीची, दक्षिणा, उदीची, ध्रुवा, ऊर्ध्वा, केन्द्रगता च ॥ आकाशस्थाः सप्त ऋषयश्च मरीचिः, वसिष्ठः, अङ्गिराः, अत्रिः, पुलस्त्यः, पुलहः, क्रतुरिति ॥ ऋग्वेदे सप्तसंख्यकानि वस्तूनि एवमुदीरितानि—“स॒प्त दिशो॒ नाना॑सूर्याः स॒प्त होता॑र ऋ॒त्विजः॑। दे॒वा आदि॒त्या ये स॒प्त तेभिः॑ सोमा॒भि र॑क्ष न॒ इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव।” ऋ० ९।११४।३ इति। यजुर्वेदे २६।१ इत्यत्र सप्त संसदः एवमुक्ताः—‘अग्निः, वायुः, अन्तरिक्षम्, आदित्यः, द्यौः, आपः, वरुणश्चेति। अष्टमी च भूतसाधनी’ इति ॥२॥

भावार्थभाषाः -

ब्रह्माण्डस्थाः सर्वेऽपि दिग्विदिगादयः पदार्थाः, शरीरस्थाः सर्वेऽपि मनोबुद्ध्यादयः, यज्ञस्थाः सर्वेऽपि ऋत्विजश्च जगदीश्वरस्यैव महिमानं गायन्ति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९२।२०, अथ० २०।११०।२। २. सप्त संसदः—सप्तर्त्विजः, त्रय उद्गातारः, होता, मैत्रावरुणः, ब्राह्मणाच्छंसी, अच्छावाकः—एते ऋत्विजः—इति वि०।