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देवता: इन्द्रः ऋषि: वसिष्ठो मैत्रावरुणिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प्र꣢ व꣣ इ꣡न्द्रा꣢य꣣ मा꣡द꣢न꣣ꣳ ह꣡र्य꣢श्वाय गायत । स꣡खा꣢यः सोम꣣पा꣡व्ने꣢ ॥७१६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र व इन्द्राय मादनꣳ हर्यश्वाय गायत । सखायः सोमपाव्ने ॥७१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । वः꣣ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । मा꣡द꣢꣯नम् । ह꣡र्य꣢꣯श्वाय । ह꣡रि꣢꣯ । अ꣣श्वाय । गायत । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣡यः । सोमपा꣡व्ने꣢ । सो꣣म । पा꣡व्ने꣢꣯ ॥७१६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 716 | (कौथोम) 1 » 2 » 2 » 1 | (रानायाणीय) 2 » 1 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में मन्त्रसंख्या १५६ पर परमात्मा और राजा के पक्ष में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा के पक्ष में व्याख्या करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सखायः) साथियो ! (वः) तुम (हर्यश्वाय) ज्ञान ग्रहण कराने और कर्मों को करानेवाले ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय रूप घोड़े जिसके पास हैं ऐसे, (सोमपाव्ने) ब्रह्मानन्दरस का पान करनेवाले (इन्द्राय)अपने अन्तरात्मा के लिये (मादनम्) हर्षक एवं उद्बोधक गीत (प्र गायत) भली-भाँति गाया करो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

अपने आत्मा को उद्बोधन देकर ही सब लोग संसार-समर में विजय तथा ब्रह्मानन्दरस पा सकते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५६ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे नृपतिपक्षे च व्याख्याता। अत्र जीवात्मपक्षे व्याख्यायते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सखायः) सुहृदः। (वः) यूयम् (हर्यश्वाय) हरयः ज्ञानकर्माहरणशीलाः अश्वाः ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपाः यस्य तस्मै, (सोमपाव्ने) ब्रह्मान्दरसस्य पात्रे (इन्द्राय) स्वान्तरात्मने (मादनम्) हर्षकरम् उद्बोधकं गीतम् (प्रगायत) प्रकृष्टतया उच्चारयत ॥१॥५

भावार्थभाषाः -

आत्मोद्बोधनेनैव सर्वैः संसारसमरे विजयो ब्रह्मानन्दरसश्च प्राप्तुं शक्यते ॥१॥

टिप्पणी: ४. ऋ० ७।३१।१, साम० १५६। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सखिभिर्मित्राय किं कर्तव्यमिति विषये व्याख्याति।