प्र꣢ के꣣तु꣡ना꣢ बृह꣣ता꣡ या꣢त्य꣣ग्नि꣡रा रोद꣢꣯सी वृष꣣भो꣡ रो꣢रवीति । दि꣣व꣢श्चि꣣द꣡न्ता꣢दुप꣣मा꣡मुदा꣢꣯नड꣣पा꣢मु꣣पस्थे꣢ महि꣣षो꣡ व꣢वर्ध ॥७१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र केतुना बृहता यात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति । दिवश्चिदन्तादुपमामुदानडपामुपस्थे महिषो ववर्ध ॥७१॥
प्र꣢ । के꣣तु꣡ना꣢ । बृ꣣हता꣢ । या꣣ति । अग्निः꣢ । आ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । वृ꣣षभः꣢ । रो꣣रवीति । दिवः꣢ । चि꣣त् । अ꣡न्ता꣢꣯त् । उ꣣पमा꣢म् । उ꣣प । मा꣢म् । उत् । आ꣣नट् । अपा꣢म् । उ꣣प꣡स्थे꣢ । उ꣣प꣡ । स्थे꣣ । महिषः꣢ । व꣣वर्ध ॥७१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब सर्वत्र परमेश्वर की महिमा का दर्शन करते हैं।
(अग्निः) ज्योतिर्मय जगन्नायक परमेश्वर (बृहता) विशाल (केतुना) ज्ञानराशि के साथ (प्रयाति) उपासक को प्राप्त होता है, (रोदसी) आकाश और भूमि में (आ) व्याप्त होता है, (वृषभः) सुख आदि को बरसानेवाला वह (रोरवीति) सबको बार-बार उपदेश करता है। वह (दिवः) द्युलोक के (चित्) भी (अन्तात्) प्रान्त से (उपमाम्) सूर्य के समान प्रकाशक, नक्षत्रों के समान कान्तिमान्, ध्रुव तारे के समान अचल इत्यादि रूप से उपमा को (उदानट्) प्राप्त करता है। (महिषः) महान् वह (अपाम्) जलों के (उपस्थे) स्थिति-स्थान अन्तरिक्ष में भी (ववर्ध) महिमा को प्राप्त किये हुए है ॥९॥ इस मन्त्र में याति, रोरवीति, उदानट्, ववर्ध इन अनेक क्रियाओं का एक कर्ता-कारक से सम्बन्ध होने के कारण दीपक अलङ्कार है ॥९॥
एक ही अग्नि जैसे द्युलोक में सूर्य-रूप में, अन्तरिक्ष में विद्युत्-रूप में और पृथिवी पर अग्नि के रूप में भासित होता है, वैसे ही एक ही परमात्मा सूर्य, तारा-मण्डल, बिजली, बादल, अग्नि आदि सब स्थानों में प्रकाशित होता है ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सर्वत्र परमेश्वरस्यैव महिमानं पश्यति।
(अग्निः) ज्योतिर्मयो जगन्नायकः परमेश्वरः बृहता महता (केतुना) ज्ञानराशिना सह। केतुः प्रज्ञानाम। निघं० ३।९। (प्रयाति) उपासकं प्राप्नोति। (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (आ) आव्याप्नोति। (वृषभः) सुखादीनां वर्षकः सः (रोरवीति) अतिशयेन पुनः पुनः उपदिशति। रु शब्दे, यङ्लुगन्तोऽयं प्रयोगः। (दिवः) द्युलोकस्य (चित्) अपि (अन्तात्) प्रान्तात् (उपमाम्) सूर्य इव प्रकाशकः, नक्षत्रवत्, कान्तिमान्, ध्रुवतारकवद् अचलः, इत्यादिरूपेण औपम्यम् (उदानट्२) प्राप्नोति। आनट् व्याप्तिकर्मा। निघं० २।१४। उत् पूर्वात् अशूङ् व्याप्तौ, स्वादिः, लङि व्यत्ययेन परस्मैपदं श्नमागमश्च। (महिषः) महान् सः। महिषः इति महन्नाम। निघं० ३।३। (अपाम्) उदकानाम् (उपस्थे) उपस्थाने अन्तरिक्षलोकेऽपि (ववर्ध३) महिमानम् अधिगच्छति ॥९॥ अत्र याति, रोरवीति, उदानट्, ववर्ध इत्यनेकक्रियाणाम् एककर्तृकारकसम्बन्धाद् दीपकालङ्कारः ॥९॥
एक एवाग्निर्यथा दिवि सूर्यरूपेण, गगने विद्युद्रूपेण, पृथिव्यां च वह्निरूपेण भासते तद्वदेकोऽपि परमेश्वरः सूर्ये, तारामण्डले, विद्युति, पर्जन्ये, वह्न्यादौ च सर्वत्र प्रकाशते ॥९॥