स्वा꣡दि꣢ष्ठया꣣ म꣡दि꣢ष्ठया꣣ प꣡व꣢स्व सोम꣣ धा꣡र꣢या । इ꣡न्द्रा꣢य꣣ पा꣡त꣢वे सु꣣तः꣢ ॥६८९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुतः ॥६८९॥
स्वा꣡दि꣢꣯ष्ठया । म꣡दिष्ठ꣢꣯या । प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । धा꣡र꣢꣯या । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पा꣡त꣢꣯वे । सु꣣तः꣢ ॥६८९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ४६८ क्रमाङ्क पर परमेश्वर से प्राप्त होनेवाले आनन्दरस के विषय में व्याख्या की जा चुकी है। यहाँ आचार्य से प्राप्त होनेवाले ब्रह्मज्ञानरस के विषय में व्याख्या करते हैं।
हे (सोम) ब्रह्मज्ञानरस ! तू (स्वादिष्ठया) अत्यन्त स्वादु, (मदिष्ठया) अतिशय हर्षप्रदायक (धारया) धारा से (पवस्व) हमें पवित्र कर। तू (इन्द्राय) मेरे आत्मा के (पातवे) पान करने के लिए (सुतः) आचार्य द्वारा प्रेरित किया गया है ॥१॥
शिष्य को चाहिए कि आचार्य से वह जो भौतिक विज्ञान या ब्रह्मविज्ञान प्राप्त करता है, उसे अपने आत्मा में स्थिर रूप से धारण कर ले ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४६८ क्रमाङ्के परमेश्वरात् प्राप्तव्यस्यानन्दरसस्य विषये व्याख्याता। अत्र आचार्यात् प्राप्तव्यस्य ब्रह्मज्ञानरसस्य विषयो वर्ण्यते।
हे (सोम) ब्रह्मज्ञानरस ! त्वम् (स्वादिष्ठया) स्वादुतमया, (मदिष्ठया) अतिशयेन हर्षप्रदया (धारया) प्रवाहसन्तत्या (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। [पूङ् पवने, भ्वादिः।] त्वम् (इन्द्राय) मदीयात्मने (पातवे) पातुम् (सुतः) आचार्यद्वारा प्रेरितोऽसि ॥१॥२
आचार्याच्छिष्येण यद् भौतिकविज्ञानं ब्रह्मविज्ञानं वा प्राप्यते तत् स्वात्मनि स्थिरत्वेन धारणीयम् ॥१॥