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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: शतं वैखानसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣡च्छा꣢ समु꣣द्र꣢꣫मिन्द꣣वो꣢ऽस्तं꣣ गा꣢वो꣣ न꣢ धे꣣न꣡वः꣢ । अ꣡ग्म꣢न्नृ꣣त꣢स्य꣣ यो꣢नि꣣मा꣢ ॥६५९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अच्छा समुद्रमिन्दवोऽस्तं गावो न धेनवः । अग्मन्नृतस्य योनिमा ॥६५९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡च्छ꣢꣯ । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उ꣢द्रम् । इ꣡न्द꣢꣯वः । अ꣡स्त꣢꣯म् । गा꣡वः꣢꣯ । न । धे꣣न꣡वः꣢ । अ꣡ग्म꣢꣯न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । आ ॥६५९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 659 | (कौथोम) 1 » 1 » 3 » 3 | (रानायाणीय) 1 » 1 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि ब्रह्मानन्द-रस किस प्रकार मनुष्यों का उपकार करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्दवः) ब्रह्मानन्द-रस (समुद्रम् अच्छ) हृदय-समुद्र की ओर बहते हुए (ऋतस्य) सत्य के (योनिम्) गृहरूप मेरे अन्तरात्मा को (आ अग्मन्) प्राप्त हुए हैं। किस प्रकार? ( न) जैसे (धेनवः) दूध से तृप्ति प्रदान करनेवाली (गावः) गौएँ (अस्तम्) गोशाला को प्राप्त होती हैं ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे गौएँ गोशाला को प्राप्त करके अपने दूध आदि से लोगों को तृप्त करती हैं, वैसे ही ब्रह्मानन्द हृदय और आत्मा में प्रविष्ट होकर उपासकों को तृप्ति प्रदान करते हैं ॥३॥ प्रथम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ ब्रह्मानन्दरसाः कथं जनानुपकुर्वन्तीत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्दवः) ब्रह्मानन्दरसाः समुद्रम् (अच्छ) हृदयसिन्धुं प्रति प्रवहन्तः (ऋतस्य) सत्यस्य (योनिम्) गृहभूतं मम अन्तरात्मानम् (आ अग्मन्) प्राप्ताः सन्ति। कथमिव ? (धेनवः) दुग्धेन प्रीणयन्त्यः (गावः) अघ्न्याः (अस्तं न) यथा गोगृहं गच्छन्ति तद्वत् ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा गावो गोसदनं प्राप्य स्वदुग्धादिना जनान् प्रीणयन्ति तथैव ब्रह्मानन्दाः हृदयमात्मानञ्च प्रविश्योपासकान् प्रीणयन्ति ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६६।१२।