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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: कश्यपो मारीचः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

ऋ꣣ध꣡क्सो꣢म स्व꣣स्त꣡ये꣢ संजग्मा꣣नो꣢ दि꣣वा꣡ क꣢वे । प꣡व꣢स्व꣣ सू꣡र्यो꣢ दृ꣣शे꣢ ॥६५६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ऋधक्सोम स्वस्तये संजग्मानो दिवा कवे । पवस्व सूर्यो दृशे ॥६५६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ꣣ध꣢क् । सो꣣म । स्व꣣स्त꣡ये꣢ । सु꣣ । अस्त꣡ये꣢ । सं꣣जग्मानः꣢ । स꣣म् । जग्मानः꣢ । दि꣣वा꣢ । क꣣वे । प꣡व꣢꣯स्व । सू꣡र्यः꣢꣯ । दृ꣣शे꣢ ॥६५६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 656 | (कौथोम) 1 » 1 » 2 » 3 | (रानायाणीय) 1 » 1 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में जीवात्मा और चन्द्रमा का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (कवे) बुद्धिमान्, दूरदर्शी (सोम) चन्द्रमा के समान उन्नतिशील जीवात्मन् ! तू (दिवा) परमात्मा की ज्योति से (संजग्मानः) संयुक्त होता हुआ (स्वस्तये) उत्कृष्ट जीवन के लिए (ऋधक्) उन्नति प्राप्त कर। (सूर्यः) सूर्य के समान प्रकाशमान होकर (दृशे) मुक्ति का मार्ग देखने के लिए (पवस्व) प्रयत्न कर ॥ द्वितीय—चन्द्रमा के पक्ष में। हे (कवे) पृथिवी की परिक्रमा करनेवाले (सोम) चन्द्रमा ! तू (दिवा) सूर्य के प्रकाश से (संजग्मानः) संयुक्त होता हुआ (स्वस्तये) हमारे सुख के लिए (ऋधक्) एक-एक कला से प्रतिदिन बढ़ता चल। पूर्णिमा को (सूर्यः) सूर्य के समान सम्पूर्ण प्रभामण्डलवाला होकर (दृशे) हमारे देखने के लिए (पवस्व) भूमण्डल पर अपनी चांदनी को फैला ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘सूर्यः’ अर्थात् ‘सूर्य के सदृश’ में लुप्तोपमा है। चन्द्रमा के पक्ष में जड़ वस्तु में चेतनवत् व्यवहार आलङ्कारिक है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सूर्य से चन्द्रमा प्रकाशित होता है, वैसे ही परमात्मारूप सूर्य से हम प्रकाशित होते हैं ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ जीवात्मचन्द्रयोर्विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—जीवात्मपरः। हे (कवे) मेधाविन् क्रान्तदर्शिन् (सोम) चन्द्रवद् वृद्धिशील जीवात्मन् ! त्वम् (दिवा) परमात्मज्योतिषा (संजग्मानः) संगच्छमानः सन् (स्वस्तये) उत्कृष्टजीवनाय। [अस्तिरभिपूजितः स्वस्तिरिति निरुक्तम्। ३।२१।१२।] (ऋधक्) ऋध्नुवन्, वर्धमानः भव। [ऋधगिति पृथग्भावस्यानुप्रवचनं भवति, अथापि ऋध्नोत्यर्थे दृश्यते। निरु० ४।२५] (सूर्यः) सूर्य इव प्रकाशमानः सन् (दृशे) मुक्तिमार्गं द्रष्टुम् (पवस्व) प्रयतस्व। [पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥ द्वितीयः—चन्द्रपरः। हे (कवे) पृथिवीं परितो गन्तः। [कवते गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (सोम) चन्द्र ! त्वम् (दिवा) सूर्यप्रकाशेन (संजग्मानः) संगच्छमानः (स्वस्तये) अस्मत्कल्याणाय (ऋधक्) एकैकया कलया प्रत्यहं वर्धमानो भव। तथा च पूर्णिमायाम् (सूर्यः) सूर्य इव सम्पूर्णप्रभामण्डलः सन् (दृशे) अस्माकं दर्शनाय (पवस्व) भूमण्डले स्वचन्द्रिकां प्रक्षारय ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। सूर्यः इति लुप्तोपमम्। चन्द्रपक्षे जडे चेतनवद् व्यवहार आलङ्कारिकः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा सूर्याच्चन्द्रः प्रकाशते तथैव परमात्मसूर्याद् वयं प्रकाशिता भवामः ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६४।३० ‘दि॒वः क॒विः’ इति भेदः।