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य꣡ज्जाय꣢꣯था अपूर्व्य꣣ म꣡घ꣢वन्वृत्र꣣ह꣡त्या꣢य । त꣡त्पृ꣢थि꣣वी꣡म꣢प्रथय꣣स्त꣡द꣢स्तभ्ना उ꣣तो꣡ दिव꣢꣯म् ॥६०१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यज्जायथा अपूर्व्य मघवन्वृत्रहत्याय । तत्पृथिवीमप्रथयस्तदस्तभ्ना उतो दिवम् ॥६०१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य꣢त् । जा꣡य꣢꣯थाः । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । म꣡घ꣢꣯वन् । वृ꣣त्रह꣡त्या꣢य । वृ꣣त्र । हत्या꣢꣯य । तत् । पृ꣣थिवी꣢म् । अ꣣प्रथयः । त꣢त् । अ꣣स्तभ्नाः । उत꣢ । उ꣣ । दि꣡व꣢꣯म् ॥६०१॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 601 | (कौथोम) 6 » 3 » 2 » 7 | (रानायाणीय) 6 » 2 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र का देवता इन्द्र है। इसमें यह वर्णन है कि इन्द्र परमात्मा ने ही भूमि और सूर्य को विस्तीर्ण किया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अपूर्व्य) अद्वितीय (मघवन्) ऐश्वर्यशाली परमात्मन् ! (यत्) जब, आप (वृत्रहत्याय) सृष्टि के उत्पत्तिकाल में द्यावापृथिवी को फैलाने तथा आकाश में टिकाने में विघ्नभूत मेघों के वध के लिए (जायथाः) तत्पर हुए (तत्) तभी, आपने (पृथिवीम्) भूमि को (अप्रथयः) विस्तीर्ण किया, (उत उ) और (तत्) तभी (दिवम्) सूर्य को (उत् अस्तभ्नाः) आकाश में धारण किया ॥७॥

भावार्थभाषाः -

हमारे सौरमण्डल के जन्म से पूर्व आकाश में जलती हुई गैसों का समूह रूप प्रकाश-पुञ्जमयी एक नीहारिका थी। हमारी भूमि और अन्य ग्रह उसी से अलग हुए। नीहारिका का बचा हुआ अंश सूर्य कहलाया। नीहारिका से अलग हुई हमारी भूमि भी पहले जलती हुई गैसों का पिण्ड ही थी। शनैः-शनैः ठण्डी होती हुई वह द्रव रूप को प्राप्त हुई। तब बहुत-सी जलराशि सूर्य के तीव्र ताप से भाप बनकर बादल का रूप धारण कर सूर्य और भूमि के बीच में स्थित हो गयी। तब बादल से किये हुए गाढ़ अन्धकार के कारण भूमि पर सर्वत्र चिरस्थायिनी रात्रि व्याप गयी। सूर्य के ताप का स्पर्श न होने से द्रवरूप भूमि ठण्ड पाकर स्थल रूप को प्राप्त हो गयी। तब ईश्वरीय नियमों से वह विकराल मेघ-राशि बरसकर फिर भूमि पर ही आकर समुद्ररूप में स्थित हो गयी। मेघरूप वृत्र के संहार के पश्चात् स्थलरूप पृथिवी ग्रीष्म, वर्षा आदि विविध ऋतुओं के प्रादुर्भाव से नदी, पर्वत, वनस्पति आदि से युक्त होकर बहुत विस्तीर्ण हो गयी। सूर्य भी अपने आकर्षण के बल से उसे अपने चारों ओर घुमाता हुआ ऊपर आकाश में परमेश्वर की महिमा से बिना ही आधार से स्थित रहा। यही बात इस मन्त्र के शब्दों द्वारा संक्षेप में कही गयी है ॥७॥ इस दशति में इन्द्र, पवमान, धाता, सविता, विष्णु, वायु नामों से परमेश्वर का स्मरण होने से इसके विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में तृतीय अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ षष्ठ अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रो देवता। इन्द्रः परमात्मैव द्यावापृथिव्यौ प्रथितवानित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अपूर्व्य) अपूर्व। नास्ति पूर्वं यस्मात् सोऽपूर्वः। अपूर्व एव अपूर्व्यः। ‘पादार्घाभ्यां च’ अ० ५।४।२५ इति तादर्थ्ये यत्। (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् परमात्मन् ! (यत्) यदा त्वम् (वृत्रहत्याय) सृष्ट्युत्पत्तिकाले वृत्राणां द्यावापृथिवीप्रथनोत्तम्भनविघ्नभूतानां मेघानां हननाय। वृत्रोपपदाद् हन्तेः ‘हनस्त च’ अ० ३।१।१०८ इति क्यप् तकारान्तादेशश्च। (जायथाः) उद्युक्तोऽभवः। अडभावश्छान्दसः। (तत्) तदैव त्वम् (पृथिवीम्) भुवम् (अप्रथयः) विस्तारितवान्, (उत उ) अपि च (तत्) तदैव (दिवम्) सूर्यम् (उत् अस्तभ्नाः) उपरि धारितवान् ॥७॥

भावार्थभाषाः -

अस्माकं सौरमण्डलस्य जन्मनः पूर्वं गगने ज्वलद्वायुसंघातरूपा प्रकाशपुञ्जमयी काचिन्नीहारिकाऽविद्यत। अस्माकं भूमिरन्ये च ग्रहास्तत एव प्रविभक्ताः। नीहारिकाया अवशिष्टोंऽशः सूर्यो जातः। नीहारिकायाः प्रविभक्ताऽस्माकं भूरपि प्रथमं ज्वलद्वायुपिण्डरूपैवासीत्, शनैः शनैः शैत्यमापद्यमाना सा द्रवरूपतां प्रपेदे। ततो भूयान् जलराशिः सूर्यस्य तीव्रतापाद् वाष्पीभवन् मेघत्वं प्राप्य सूर्यपृथिव्योरन्तराले स्थितः। ततो मेघकृताऽन्धतमसवशात् पृथिव्यां सर्वत्र चिरस्थायिनी रात्रिर्व्याप्ता। सूर्यतापस्पर्शाभावाच्च द्रवरूपा पृथिवी शैत्यं प्राप्य स्थलरूपतां गतवती। तत ईश्वरीयनियमैः स विकरालो मेघराशिर्वृष्ट्या पुनरपि भूमिमेव प्राप्य समुद्राकारेण स्थितः। मेघरूपवृत्रहननानन्तरं च स्थलरूपा पृथिवी ग्रीष्मवर्षादिविविधऋतूनां प्रादुर्भावेण सरित्पर्वतवृक्षवनस्पत्यादियुता सुविस्तीर्णा सञ्जाता। सूर्यश्चापि स्वाकर्षणबलेन तां स्वं परितः परिभ्रामयन्नूर्ध्वमाकाशे परमेश्वरमहिम्ना निरालम्बं स्थितः। स एवार्थो मन्त्रगिरा समासेनोक्तः ॥७॥ अत्रेन्द्रपवमानधातृसवितृविष्णुवायुनाम्ना परमेश्वरस्य स्मरणादे- तद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति षष्ठे प्रपाठके तृतीयार्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति षष्ठेऽध्याये द्वितीयः खण्डः ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।८९।५ ‘उतो दिवम्’ इत्यत्र ‘उत द्याम्’ इति पाठः। साम० १४२९।