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स꣢ न꣣ इ꣡न्द्रा꣢य꣣ य꣡ज्य꣢वे꣣ व꣡रु꣢णाय म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । व꣣रिवोवि꣡त्परि꣢꣯स्रव ॥५९२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स न इन्द्राय यज्यवे वरुणाय मरुद्भ्यः । वरिवोवित्परिस्रव ॥५९२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । य꣡ज्य꣢꣯वे । व꣡रु꣢꣯णाय । म꣣रु꣡द्भ्यः꣢ । व꣣रिवोवि꣢त् । व꣣रिवः । वि꣢त् । प꣡रि꣢꣯स्र꣣व ॥५९२॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 592 | (कौथोम) 6 » 3 » 1 » 7 | (रानायाणीय) 6 » 1 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले दो मन्त्रों का पवमान सोम देवता है। इस मन्त्र में परमात्मा और राजा को कहा जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। हे पवमान सोम अर्थात् सर्वोत्पादक, सकल ऐश्वर्य के अधिपति, रसमय, पवित्रतादायक परमात्मन् ! (सः) सुप्रसिद्ध आप (नः) हमारे (यज्यवे) देह-रूप यज्ञ के सञ्चालक (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए, (वरुणाय) श्रेष्ठ संकल्पों का वरण करनेवाले मन के लिए और (मरुद्भ्यः) प्राणों के लिए (वरिवोवित्) उनके बलरूप ऐश्वर्य के प्राप्त करानेवाले होकर (परिस्रव) हृदय में सञ्चार करो ॥ द्वितीय—राष्ट्र-परक। हे पवमान सोम अर्थात् सब राज्याधिकारियों को अपने-अपने कर्तव्य कर्मों में प्रेरित करने तथा उनके दोषों को दूर कर पवित्रता देनेवाले राजन् ! (सः) वह प्रजाओं द्वारा राजा के पद पर अभिषिक्त किये हुए आप (नः) हमारे (यज्यवे) राष्ट्र-यज्ञ के कर्ता (इन्द्राय) सेनाध्यक्ष के लिए, (वरुणाय) असत्याचरण करनेवालों को बन्धन में बाँधनेवाले कारागार-अधिकारी के लिए और (मरुद्भ्यः) योद्धा सैनिकों के लिए (वरिवोवित्) देने योग्य उचित वेतनरूप धन के प्राप्त करानेवाले होकर (परिस्रव) राष्ट्र में सञ्चार करो ॥७॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर कृपा करके हमारे आत्मा, मन, प्राण, इन्द्रिय आदि को शरीर-राज्य चलाने का बलरूप धन और राजा नियुक्त राज्याधिकारियों को देय वेतनरूप धन सदा देता रहे। जो राजा अन्याय से सेवकों को वेतन से वंचित करता है, उसके प्रति वे पूर्णतः विद्रोह कर देते हैं ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ द्वयोः पवमानः सोमो देवता। अत्र परमात्मानं राजानं चाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—अध्यात्मपरः। हे पवमान सोम सर्वोत्पादक समग्रैश्वर्याधिपते रसमय पवित्रतादायक परमात्मन् ! (सः) सुप्रसिद्धः त्वम् (नः) अस्माकम् (यज्यवे) देहयज्ञसञ्चालकाय (इन्द्राय) जीवात्मने, (वरुणाय) सत्संकल्पानां वरणकर्त्रे मनसे, (मरुद्भ्यः) प्राणेभ्यश्च (वरिवोवित्) तत्तद्बलरूपस्य ऐश्वर्यस्य लम्भकः सन्। वरिवः इति धननाम। निघं० २।१०। (परिस्रव) हृदये प्रवहस्व, सञ्चरेत्यर्थः ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। हे पवमान सोम सर्वेषां राज्याधिकारिणां स्वस्वकर्तव्यकर्मसु प्रेरक तदीयदोषाणां हरणेन पवित्रतादायक राजन् ! (सः) प्रजाभिः राजपदेऽभिषिक्तः त्वम् (नः) अस्माकम् (यज्यवे) राष्ट्रयज्ञस्य यष्ट्रे (इन्द्राय) सेनाध्यक्षाय, (वरुणाय) अनृताचारिणां पाशबन्धकाय कारागाराधिकारिणे। अनृते खलु वै क्रियमाणे वरुणो गृह्णाति। तै० ब्रा० १।७।२।६ इति श्रुतेः। (मरुद्भ्यः) योद्धृभ्यः सैनिकेभ्यश्च (वरिवोवित्) समुचितवेतनरूपस्य धनस्य लम्भकः सन् (परिस्रव) राष्ट्रे सञ्चर ॥७॥२

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरः कृपयाऽस्माकमात्ममनःप्राणेन्द्रियादिभ्यः शरीरराज्य- निर्वहणशक्तिरूपं धनं, राजा च नियुक्तेभ्यो राज्याधिकारिभ्यो देयवेतनरूपं धनं सर्वदा प्रयच्छेत्। यो नृपतिरन्यायेन सेवकान् वेतनाद् वञ्चयते तं ते सर्वात्मनाभिद्रुह्यन्ति ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६१।१२, य० २६।१७ ऋषिः महीयवः, साम० ६७३। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं यजुर्भाष्ये विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।