प꣡व꣢ते हर्य꣣तो꣢꣫ हरि꣣र꣢ति꣣ ह्व꣡रा꣢ꣳसि꣣ र꣡ꣳह्या꣢ । अ꣣꣬भ्य꣢꣯र्ष स्तो꣣तृ꣡भ्यो꣢ वी꣣र꣢व꣣द्य꣡शः꣢ ॥५७६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवते हर्यतो हरिरति ह्वराꣳसि रꣳह्या । अभ्यर्ष स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः ॥५७६॥
प꣡व꣢꣯ते । ह꣣र्यतः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । अ꣡ति꣢꣯ । ह्व꣡राँ꣢꣯सि । रँ꣡ह्या꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । अ꣣र्ष । स्तोतृ꣡भ्यः꣢ । वी꣣र꣡व꣢त् । य꣡शः꣢꣯ ॥५७६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा रूप सोम से प्रार्थना की गयी है।
हे सोम परमात्मन् ! (हर्यतः) गतिमान्, कर्मण्य, पुरुषार्थी और तुम्हारी चाहवाला तुम्हारा प्रिय (हरिः) मनुष्य (रंह्या) वेग के साथ (ह्वरांसि) कुटिलता के मार्गों को (अति) अतिक्रमण करके (पवते) सन्मार्गों पर दौड़ रहा है। (त्वम्) तुम स्तोतृभ्यः) तुम्हारे गुण-कर्म-स्वभाव की स्तुति करनेवाले अपने उपासकों को (वीरवत्) वीरभावों अथवा वीर पुत्रों से युक्त (यशः) यश (अभ्यर्ष) प्राप्त कराओ ॥११॥ इस मन्त्र में र्, ह्, आदि की पृथक्-पृथक् अनेक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास अलङ्कार है ॥११॥
पुरुषार्थी, कर्मण्य परमेश्वरोपासक मनुष्य अपने जीवन में कुटिलता छोड़कर और सरलता को स्वीकार करके वीरभावों और वीर सन्ततियों से युक्त होता हुआ परम उज्ज्वल यश से चमकता है ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मसोमः प्रार्थ्यते।
हे सोम परमात्मन् ! (हर्यतः) गतिमान्, कर्मण्यः पुरुषार्थी, त्वत्कामः, तव प्रियः। हर्य गतिकान्त्योः। ‘भृमृदृशि०। उ० ३।११०’ इत्यतच् प्रत्ययः। चित्त्वादन्तोदात्तत्वम्। (हरिः) मनुष्यः। हरयः इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (रंह्या२) वेगेन। रंहिः गतिः। निरु० १०।२९। (ह्वरांसि) कुटिलतायाः मार्गान् (अति) अतिक्रम्य (पवते) सन्मार्गाननुधावति। त्वम् (स्तोतृभ्यः) त्वद्गुणकर्मस्वभाववर्णनपरायणेभ्यः तवोपासकेभ्यः (वीरवत्) वीरभावैर्युक्तं वीरपुत्रैर्वा युक्तम् (यशः) कीर्तिसमूहम् (अभ्यर्ष) अभिप्रापय ॥११॥ अत्र रेफहकारादीनां पृथक् पृथगनेकश आवृत्तौ वृत्त्यनुप्रासोऽलङ्कारः ॥११॥
पुरुषार्थी कर्मण्यः परमेश्वरोपासको जना स्वजीवने कौटिल्यं परिहृत्य सरलतां स्वीकृत्य वीरभावैर्वीरसन्ततिभिश्च युक्तः सन् परमोज्ज्वलेन यशसा देदीप्यते ॥११॥