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प्र꣡ पु꣢ना꣣ना꣡य꣢ वे꣣ध꣢से꣣ सो꣡मा꣢य꣣ व꣡च꣢ उच्यते । भृ꣣तिं꣡ न भ꣢꣯रा म꣣ति꣡भि꣢र्जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥५७३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र पुनानाय वेधसे सोमाय वच उच्यते । भृतिं न भरा मतिभिर्जुजोषते ॥५७३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । पु꣣नाना꣡य꣢ । वे꣣ध꣡से꣢ । सो꣡मा꣢꣯य । व꣡चः꣢꣯ । उ꣣च्यते । भृति꣢म् । न । भ꣣र । मति꣡भिः꣢ । जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥५७३॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 573 | (कौथोम) 6 » 2 » 3 » 8 | (रानायाणीय) 5 » 10 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा के प्रति मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पुनानाय) उपासक के हृदय को पवित्र करनेवाले, (वेधसे) आनन्द के विधायक (सोमाय) रसागार परमात्मा के लिए (वचः) धन्यवाद का वचन (प्र उच्यते) हमारे द्वारा कहा जा रहा है। हे मित्र ! तुम भी (मतिभिः) बुद्धियों से (जुजोषते) तुम्हें तृप्त करनेवाले उस परमात्मा के लिए (भृतिं न) वेतन-रूप या उपहार-रूप धन्यवादादि वचन को (भर) प्रदान करो, अर्थात् कार्य करनेवाले को जैसे कोई बदले में वेतन या उपहार देता है, वैसे ही बुद्धि देनेवाले उसे तुम बदले में धन्यवाद दो ॥८॥ इस मन्त्र में ‘भृतिं न भर’ में उत्प्रेक्षालङ्कार है ॥८॥

भावार्थभाषाः -

जो परमेश्वर सुमति-प्रदान आदि के द्वारा हमारा उपकार करता है, उसके प्रति हम कृतज्ञता क्यों न प्रकाशित करें ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं प्रति मनुष्यस्य कर्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(पुनानाय) उपासकस्य हृदयं पवित्रं कुर्वते, (वेधसे) आनन्दस्य विधात्रे (सोमाय) रसागाराय परमात्मने (वचः) धन्यवादवचनम् (प्र उच्यते) अस्माभिः प्रोच्चार्यते। हे सखे ! (मतिभिः) मेधाभिः (जुजोषते) त्वां प्रीणयते तस्मै परमात्मने। जुषी प्रीतिसेवनयोः तुदादिः, शतरि ‘बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३’ इति शपः श्लौ द्वित्वम्। त्वमपि (भृतिं न) वेतनमिव, उपहारमिव वा (भर) आहर। यथा कर्मकराय कश्चिद् वेतनम् उपहारं वा प्रयच्छति तथा मेधाभिः प्रीणयते (तस्मै) त्वं विनिमयरूपेण धन्यवादं प्रदेहीति भावः ॥८॥ ‘भृतिं न भर’ इत्यत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥८॥

भावार्थभाषाः -

यः परमेश्वरोऽस्मान् सुमतिप्रदानादिभिरुपकरोति तत्कृते वयं कृतज्ञतां कुतो न प्रकाशयेम ॥८॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०३।१ ‘उच्यते’ इत्यत्र ‘उद्यतम्’ इति पाठः।