स꣡खा꣢य꣣ आ꣡ नि षी꣢꣯दत पुना꣣ना꣢य꣣ प्र꣡ गा꣢यत । शि꣢शुं꣣ न꣢ य꣣ज्ञैः꣡ परि꣢꣯ भूषत श्रि꣣ये꣢ ॥५६८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सखाय आ नि षीदत पुनानाय प्र गायत । शिशुं न यज्ञैः परि भूषत श्रिये ॥५६८॥
स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । आ꣢ । नि । सी꣣दत । पुनाना꣡य꣢ । प्र । गा꣣यत । शि꣡शुम् । न । य꣣ज्ञैः꣢ । प꣡रि꣢꣯ । भू꣣षत । श्रिये꣢ ॥५६८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
उपासनायज्ञ में मित्रों को निमन्त्रित किया जा रहा है।
हे (सखायः) मित्रो ! तुम (आ निषीदत) आकर उपासनायज्ञ में बैठो। (पुनानाय) हृदय को पवित्र करनेवाले परमात्मारूप सोम के लिए (प्र गायत) भक्ति-भरे वेदमन्त्रों को गाओ। उस परमात्मारूप सोम को (श्रिये) शोभा के लिए (यज्ञैः) उपासनायज्ञों से (शिशुं न) शिशु के समान (परिभूषत) चारों ओर से अलङ्कृत करो अर्थात् जैसे शोभा के लिए शिशु को अलङ्कार-वस्त्र आदियों से अलङ्कृत करते हैं, वैसे ही शोभापूर्वक अपने आत्मा में प्रतिष्ठापित करने के लिए परमात्मा को उपासना-यज्ञों से अलङ्कृत करो ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। निषीदत, प्रगायत, परिभूषत इन अनेक क्रियाओं का एक कारक से योग होने से कारण दीपकालङ्कार भी है ॥३॥
उपासना-योग द्वारा रसागार परमात्मा को साक्षात् करके सबको आनन्दरस का उपभोग करना चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासनायज्ञे सखीन् निमन्त्रयते।
हे (सखायः) सुहृदः ! यूयम् (आ निषीदत) समेत्य उपासनायज्ञे उपविशत, (पुनानाय) हृदयस्य पवित्रतां कुर्वाणाय परमात्मसोमाय (प्र गायत) भक्तिभावभरितान् वेदमन्त्रान् गायत। किञ्च तं परमात्मसोमम् (श्रिये) शोभायै (यज्ञैः) उपासनायज्ञैः (शिशुं न) शिशुमिव (परिभूषत) परितः अलङ्कुरुत। यथा शोभासम्पादनाय शिशुम् आभरणवस्त्रादिभिरलङ्कुर्वन्ति तथा शोभापूर्वकं स्वात्मनि प्रतिष्ठापनाय परमात्मानम् उपासनायज्ञैरलङ्कुरुतेति भावः ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘निषीदत, प्रगायत, परिभूषत’ इत्यनेकक्रियाणामेककारकयोगाच्च दीपकालङ्कारोऽपि ॥३॥
उपासनायोगेन रसागारं परमात्मानं साक्षात्कृत्य सर्वैरानन्दरस उपभोक्तव्यः ॥३॥