नि꣡ त्वाम꣢꣯ग्ने꣣ म꣡नु꣢र्दधे꣣ ज्यो꣢ति꣣र्ज꣡ना꣢य꣣ श꣡श्व꣢ते । दी꣣दे꣢थ꣣ क꣡ण्व꣢ ऋ꣣त꣡जा꣢त उक्षि꣣तो꣡ यं न꣢꣯म꣣स्य꣡न्ति꣢ कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ ॥५४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)नि त्वामग्ने मनुर्दधे ज्योतिर्जनाय शश्वते । दीदेथ कण्व ऋतजात उक्षितो यं नमस्यन्ति कृष्टयः ॥५४॥
नि꣢ । त्वाम् । अ꣣ग्ने । म꣡नुः꣢꣯ । द꣣धे । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । ज꣡ना꣢꣯य । श꣡श्व꣢꣯ते । दी꣣दे꣡थ꣢ । क꣡ण्वे꣢꣯ । ऋ꣣त꣡जा꣢तः । ऋ꣣त । जा꣣तः । उक्षितः꣢ । यम् । न꣣मस्य꣡न्ति꣢ । कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ ॥५४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा की स्तुति करते हुए उससे प्रार्थना की गयी है।
हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप प्रकाशक परमात्मन् ! (मनुः) मननशील जन (त्वाम्) अत्युच्च महिमावाले आपको (निदधे) निधि के समान अपने अन्तःकरण में धारण करता है। आप (शश्वते) शाश्वत, सनातन (जनाय) जीवात्मा के लिए (ज्योतिः) दिव्य ज्योति प्रदान करते हो। (ऋतजातः) सत्य में प्रसिद्ध, (उक्षितः) हृदय में सिक्त आप (कण्वे) मुझ मेधावी के अन्दर (दीदेथ) प्रकाशित होवो, (यम्) जिस आपको (कृष्टयः) उपासक जन (नमस्यन्ति) नमस्कार करते हैं ॥१०॥
सब मेधावी जनों को चाहिए कि मननशीलों के सबसे बड़े खजाने, जीवात्माओं को दिव्य ज्योति प्रदान करनेवाले परमेश्वर को अपने हृदय में प्रदीप्त करें और उसकी उपासना करें ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के कर्तृत्व और महत्त्व के वर्णनपूर्वक मनुष्यों को उसकी स्तुति के लिए प्रेरित किया गया है और हृदय में उसकी समीपता एवं वृद्धि की याचना की गयी है, इसलिए इसके विषय की पूर्व दशति में वर्णित विषय के साथ संगति है, यह जानना चाहिए ॥ प्रथम प्रपाठक में, प्रथम अर्ध की पाँचवीं दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में पाँचवाँ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं स्तुवन् तं प्रार्थयते।
हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप प्रकाशक परमात्मन् ! (मनुः) मननशीलो जनः (त्वाम्२) परममहिमान्वितं त्वाम् (निदधे) निधिवत् स्वान्तःकरणे धारयति। त्वम् (शश्वते३) शाश्वताय सनातनाय (जनाय) जीवात्मने (ज्योतिः) दिव्यं प्रकाशं, प्रयच्छसीति शेषः। (ऋतजातः) ऋते सत्ये जातः प्रसिद्धः, (उक्षितः) हृदये सिक्तः, त्वम् (कण्वे४) मेधाविनि मयि। कण्व इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (दीदेथ५) प्रकाशस्य। दीदयति ज्वलतिकर्मा।’ निघं० १।१६ (यम्) यं त्वाम् (कृष्टयः) उपासकाः मनुष्याः। कृष्टय इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। (नमस्यन्ति) नमस्कुर्वन्ति ॥१०॥६
मननशीलानां परमो निधिर्जीवात्मनां च दिव्यज्योतिष्प्रदः परमेश्वरः सर्वैर्मेधाविजनैः स्वहृदि प्रदीपनीयः समुपासनीयश्च ॥१०॥ अत्र परमात्मकर्तृत्वमहत्त्ववर्णनपुरस्सरं तत्स्तुत्यर्थं प्रेरणाद्, हृदये तत्सामीप्यतद्वृद्धियाचनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति प्रथमे प्रपाठके प्रथमेऽर्धे पञ्चमी दशतिः ॥ इति प्रथमेऽध्याये पञ्चमः खण्डः ॥