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अ꣢ध꣣ ज्मो꣡ अध꣢꣯ वा दि꣣वो꣡ बृ꣢ह꣣तो꣡ रो꣢च꣣ना꣡दधि꣢꣯ । अ꣣या꣡ व꣢र्धस्व त꣣꣬न्वा꣢꣯ गि꣣रा꣢꣫ ममा जा꣣ता꣡ सु꣢क्रतो पृण ॥५२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि । अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥५२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ध꣢꣯ । ज्मः । अ꣡ध꣢꣯ । वा꣣ । दिवः꣢ । बृ꣣हतः꣢ । रो꣣चना꣢त् । अधि꣢꣯ । अ꣣या꣢ । व꣣र्धस्व । त꣡न्वा꣢꣯ । गि꣣रा꣢ । म꣡म꣢꣯ । आ । जा꣣ता꣢ । सु꣢क्रतो । सु । क्रतो पृण ॥५२॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 52 | (कौथोम) 1 » 1 » 5 » 8 | (रानायाणीय) 1 » 5 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गई है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अध) और, हे इन्द्र परमात्मन् ! आप (ज्मः) पृथिवी लोक से, (अध वा) तथा (दिवः) द्युलोक से, और (बृहतः) महान् (रोचनात् अधि) प्रदीप्त चन्द्रलोक अथवा अन्तरिक्षलोक से उन-उन लोकों की वस्तुएँ लाकर हमें (आ पृण) परिपूर्ण कीजिए। अभिप्राय यह है कि पृथिवी, द्यौ तथा अन्तरिक्ष में जो अग्नि, वायु, प्रकाश, ओषधि, वनस्पति, फल, मूल, सोना, चाँदी, मणि, मोती आदि वस्तुएँ हैं, उन्हें आप मुक्त हस्त से हमें प्रदान कीजिए। आप (मम) मेरी (अया) इस (तन्वा) विस्तीर्ण (गिरा) स्तुति-वाणी से (वर्धस्व) मेरे अन्तःकरण में वृद्धि को प्राप्त होइए। हे (सुक्रतो) उत्कृष्ट प्रज्ञावाले और उत्कृष्ट कर्मोंवाले ! आप (जाता) उत्पन्न सन्तानों को (आ पृण) प्रज्ञाओं, कर्मों और सम्पदाओं से तृप्त कीजिए ॥८॥

भावार्थभाषाः -

भूलोक के पर्वत, नदी, नद, सागर, वृक्ष, वनस्पति, लता, पत्र, पुष्प आदि में, द्युलोक के नक्षत्र, आकाशगंगा, सूर्य, सूर्यकिरण आदि में और अन्तरिक्ष-लोक के चन्द्रमा, वायु, बादल आदि में जो ऐश्वर्य है, उस सबको परमेश्वर हमें निःशुल्क प्रदान करता है। इसलिए हमें वाणी से उसकी महिमा का प्रकाश करनेवाले गीत गाने चाहिए ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मा प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अध) अथ, हे इन्द्र ! त्वम् (ज्मः२) पृथिव्याः। ज्मा पृथिवीनाम। निघं० १।—१। आकारलोपश्छान्दसः। (अध वा) अपि च (दिवः) द्युलोकात् किञ्च (बृहतः) महतः (रोचनात् अधि) प्रदीप्तात् चन्द्रलोकाद् अन्तरिक्षलोकाद् वा। (अधिः) पञ्चम्यर्थानुवादी। त्वम् अस्मान् (आ पृण) आपूरय, पृथिव्यां दिवि अन्तरिक्षे च यानि अग्निवायुप्रकाशौषधिवनस्पतिफलमूलस्वर्णरजतमणिमुक्तादीनि वस्तूनि सन्ति तानि त्वं मुक्तहस्तेनास्मभ्यं प्रयच्छेति भावः। त्वम् (मम) मदीयया (अदा) अनया। अया एना इत्युपदेशस्येति निरुक्तम्। ३।२१। (तन्वा३) विस्तीर्णया (गिरा) स्तुतिवाचा (वर्धस्व) मदन्तःकरणे वृद्धिं भजस्व। हे (सुक्रतो) सुप्रज्ञ, सुकर्मन् ! क्रतुः कर्मनाम प्रज्ञानाम च। निघं० २।१, ३।९। त्वम् (जाता४) जातानि मम अपत्यानि अत्र शेश्छन्दसि बहुलम्।’ अ० ६।१।७० इति द्वितीयाबहुवचनस्य शेर्लोपः। (आ पृण) प्रज्ञाभिः कर्मभिः संपद्भिश्च प्रीणय। पृण प्रीणने। उक्तं चान्यत्र ‘दिवो वि॑ष्णो उ॒त वा॑ पृथि॒व्या म॒हो वि॑ष्ण उ॒रोर॒न्तरि॑क्षात् ॥ हस्तौ॑ पृणस्व ब॒हुभि॑र्व॒सव्यै॑रा॒प्रय॑च्छ॒ दक्षि॑णा॒दोत स॒व्यात् ॥’ अथ० ७।२६।८ इति ॥८॥

भावार्थभाषाः -

भूलोके पर्वतनदीनदसागरवृक्षवनस्पतिलतापत्रपुष्पादिषु, द्युलोके नक्षत्राकाशगङ्गासूर्यसूर्यकिरणादिषु, अन्तरिक्षलोके च चन्द्रवायु- पर्जन्यादिषु यदैश्वर्यं विद्यते तत्सर्वं परमेश्वरोऽस्मभ्यं निःशुल्कं ददाति। अतोऽस्माभिर्गिरा तन्महिमप्रकाशकानि गीतानि गातव्यानि ॥८॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।१।१८। २. जमः जमन्ति गच्छन्त्यस्यामिति ज्मा पृथिवी तस्याः सकाशात्—इति सा०। ३. तन्वा ततया मम गिरा स्तुत्या—इति भ०। तन्वा शरीरेण—इति वि०। ४. जातानि ममापत्यानि—इति वि०। जातान् जनान् मदीयान्—इति भ०। जातानस्मदीयान् जनान् अभिलषितैः फलैरापूरय—इति सा०।