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आ꣡ सो꣢म स्वा꣣नो꣡ अद्रि꣢꣯भिस्ति꣣रो꣡ वारा꣢꣯ण्य꣣व्य꣡या꣢ । ज꣢नो꣣ न꣢ पु꣣रि꣢ च꣣꣬म्वो꣢꣯र्विश꣣द्ध꣢रिः꣣ स꣢दो꣣ व꣡ने꣢षु दध्रिषे ॥५१३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ सोम स्वानो अद्रिभिस्तिरो वाराण्यव्यया । जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः सदो वनेषु दध्रिषे ॥५१३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । सो꣣म । स्वानः꣢ । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । तिरः꣢ । वा꣡रा꣢꣯णि । अ꣣व्य꣡या꣢ । ज꣡नः꣢꣯ । न । पु꣣रि꣢ । च꣣म्वोः꣢꣯ । वि꣣शत् । ह꣡रिः꣢꣯ । स꣡दः꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । द꣣ध्रिषे ॥५१३॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 513 | (कौथोम) 6 » 1 » 3 » 3 | (रानायाणीय) 5 » 5 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में सोम परमात्मा को सम्बोधित किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) परमात्मरूप सोम ! (अद्रिभिः) ध्यानरूप यज्ञिय सिलबट्टों से (आ स्वानः) अभिषुत होता हुआ तू (अव्यया वाराणि तिरः) भेड़ों के बालों से निर्मित दशापवित्रों के समान शुद्धचित्तवृत्तियों से छनकर क्षरित होता है। शुद्ध चित्तवृत्तिरूप दशापवित्रों से क्षरित (हरिः) दुःख पाप आदि का हर्ता वह रसागार परमेश्वर (चम्वोः) अधिषवणफलकों के तुल्य बुद्धि और मन में (विशत्) प्रवेश करता है, (जनः न) जैसे मनुष्य (पुरि) नगरी में प्रवेश करता है। तदनन्तर हे परमात्म-सोम ! तू (वनेषु) प्राणों में (सदः) स्थिति को (दध्रिषे) धारण करता है ॥३॥ इस मन्त्र में ‘जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः’ में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे यज्ञिय सिलबट्टों से अभिषुत, भेड़ के बालों से निर्मित दशापवित्रों द्वारा क्षारित सोमलता का रस द्रोणकलशों में प्रविष्ट होकर जल से मिल जाता है, वैसे ही आनन्दरसागार परमेश्वर जब ध्यानों द्वारा अभिषुत, शुद्ध चित्तवृत्तियों से क्षारित और बुद्धि तथा आत्मा में प्रविष्ट होकर प्राणों में अभिव्याप्त हो जाता है, तभी साधक की उपासना सफल होती है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ सोमः परमात्मा सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) परमात्म-सोम ! (अद्रिभिः) ध्यानरूपैः अभिषवपाषाणैः (आ स्वानः) आसूयमानः त्वम् (अव्यया वाराणि तिरः) अविबालजनितदशापवित्रमध्यादिव शुद्धचित्तवृत्तिमध्यात् क्षरितो भवसि। अविभ्यो जातानि अव्यानि। ‘सुपां सुलुक्०’ इति द्वितीयाबहुवचनस्य याऽऽदेशे ‘अव्यया’ इति। अथ परोक्षकृतमाह। शुद्धचित्तवृत्तिरूपदशापवित्रमध्यात् क्षरितः (हरिः) दुःखपापादिहर्ता स रसागारः परमेश्वरः (चम्वोः) अधिषवणफलकयोरिव बुद्ध्यात्मनोः (विशत्) निविशति, (जनः न) मनुष्यो यथा (पुरि) नगर्यां विशति तद्वत्। अथ पुनः प्रत्यक्षकृतमाह। ततश्च हे सोम परमात्मन् ! त्वं (वनेषु) उदकेषु, अम्मयेषु प्राणेषु। वनमित्युदकनाम। निघं० १।१२। आपो वै प्राणाः। श० ३।८।२।४। (सदः) स्थितिम् (दध्रिषे) धारयसि। डुधाञ् धारणपोषणयोः। लडर्थे लिटि सिपि दधिषे इति प्राप्ते ‘बहुलं छन्दसि’ अ० ७।१।८ इति रुडागमः ॥३॥ अत्र ‘जनो न पुरि चम्वोर्विशद्धरिः’ इत्यत्रोपमा ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा ग्रावभिरभिषुतोऽविबालमयैर्दशापवित्रैः क्षारितः सोमौषधिरसो द्रोणकलशयोः प्रविष्टो जलेन मिश्रितो जायते तथैवानन्दरसागारः परमेश्वरो यदा ध्यानैरभिषुतः शुद्धचित्तवृत्तिभिः क्षारितः बुद्ध्यात्मनोः प्रविष्टः सन् प्राणानभिव्याप्नोति तदैव साधकस्योपासना सफलीभवति ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०७।१० ‘स्वानो, दध्रिषे’ इत्यत्र क्रमेण ‘सुवानो, दधिषे’ इति पाठः। साम० १६८९।