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वृ꣡षा꣢ सोम द्यु꣣मा꣡ꣳ अ꣢सि꣣ वृ꣡षा꣢ देव꣣ वृ꣡ष꣢व्रतः । वृ꣡षा꣣ ध꣡र्मा꣢णि दध्रिषे ॥५०४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

वृषा सोम द्युमाꣳ असि वृषा देव वृषव्रतः । वृषा धर्माणि दध्रिषे ॥५०४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृ꣡षा꣢꣯ । सो꣣म । द्युमा꣢न् । अ꣣सि । वृ꣡षा꣢꣯ । दे꣣व । वृ꣡ष꣢꣯व्रतः । वृ꣡ष꣢꣯ । व्र꣣तः । वृ꣡षा꣢꣯ । ध꣡र्मा꣢꣯णि । द꣣ध्रिषे ॥५०४॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 504 | (कौथोम) 6 » 1 » 2 » 8 | (रानायाणीय) 5 » 4 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में सोम जगदीश्वर की महिमा का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसनिधि जगदीश्वर ! (द्युमान्) तेजस्वी आप (वृषा) तेज के वर्षक सूर्य के समान (असि) हो, हे (देव) दान आदि गुणों से युक्त ! (वृषव्रतः) सद्गुण आदि की वृष्टि करनेवाले आप (वृषा) वर्षा करनेवाले बादल के समान हो। (वृषा) धर्म की वर्षा करनेवाले आप (धर्माणि) धर्म कर्मों को (दध्रिणे) धारण करते हो ॥८॥ इस मन्त्र में ‘वृषा’ की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है। ‘वृषा असि’ में लुप्तोपमा है ॥८॥

भावार्थभाषाः -

उपासना किया हुआ परमेश्वर सूर्य और बादल के समान वर्षक होकर धन, धर्म, तेज, शान्ति, सुख आदि की वर्षा से उपासक को कृतार्थ करता है ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ सोमाख्यस्य जगदीश्वरस्य महिमानमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसनिधे जगदीश्वर ! (द्युमान्) द्युतिमान् त्वम् (वृषा) तेजोवर्षकः सूर्यः इव (असि) वर्तसे। हे (देव) दानादिगुणयुक्त ! (वृषव्रतः) सद्गुणादीनां वर्षणकर्मा त्वम् (वृषा) वर्षकः पर्जन्यः इव असि। (वृषा) धर्मवर्षकः त्वम् (धर्माणि) धर्मकर्माणि (दध्रिषे) धारयसि। धृञ् धारणे, भ्वादिः। लडर्थे लिट् ॥८॥ अत्र ‘वृषा’ इत्यस्यावृत्तौ यमकालङ्कारः। ‘वृषा असि’ वर्षकः सूर्य इव पर्जन्य इव च वर्तसे इति लुप्तोपमम् ॥८॥

भावार्थभाषाः -

उपासितः परमेश्वरः सूर्यवन्मेघवच्च वर्षको भूत्वा धनधर्मतेजःशान्तिसुखादीनां वृष्टिभिरुपासकं कृतार्थयति ॥८॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६४।१, ‘दध्रिषे’ इत्यत्र ‘दधिषे’ इति पाठः। साम० ७८१।