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अ꣡चि꣢क्रद꣣द्वृ꣢षा꣣ ह꣡रि꣢र्म꣣हा꣢न्मि꣣त्रो꣡ न द꣢꣯र्श꣣तः꣢ । स꣡ꣳ सूर्ये꣢꣯ण दिद्युते ॥४९७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अचिक्रदद्वृषा हरिर्महान्मित्रो न दर्शतः । सꣳ सूर्येण दिद्युते ॥४९७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡चि꣢꣯क्रदत् । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ । म꣣हा꣢न् । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न । द꣣र्शतः꣢ । सम् । सू꣡र्ये꣢꣯ण । दि꣣द्युते ॥४९७॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 497 | (कौथोम) 6 » 1 » 2 » 1 | (रानायाणीय) 5 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में सोम परमात्मा की महिमा का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वृषा) मनोरथों को पूर्ण करनेवाला, (हरिः) पापहारी सोम परमेश्वर, सबके हृदयों में स्थित हुआ (अचिक्रदत्) शब्द कर रहा है अर्थात् उपदेश व सत्प्रेरणा दे रहा है। (महान्) महान् वह (मित्रः न) मित्र के समान (दर्शतः) दर्शनीय है। वही (सूर्येण) सूर्य से (सम्) संगत हुआ (दिद्युते) प्रकाशित हो रहा है। कहा भी है—‘जो वह आदित्य में पुरुष है, वह मैं ही हूँ’, य० ४०।१७ ॥१॥ इस मन्त्र में ‘अचिक्रदत् वृषा’ यहाँ पर शब्दशक्तिमूलक ध्वनि से ‘वर्षा करनेवाला बादल गर्ज रहा है’ यह दूसरा अर्थ भी सूचित होकर बादल और सोम परमात्मा में उपमानोपमेयभाव को ध्वनित कर रहा है, इसलिए उपमाध्वनि है। ‘मित्रो न दर्शतः’ में वाच्या पूर्णोपमा है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जो सूक्ष्मदर्शी लोग हैं, वे सूर्य, पर्जन्य आदि में परमेश्वर के ही दर्शन करते हैं, क्योंकि ताप, प्रकाश, जल बरसाने आदि की सब शक्ति उसी की दी हुई है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ सोमस्य परमात्मनो महिमानमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वृषा) कामवर्षकः (हरिः) पापहर्ता सोमः परमेश्वरः, सर्वेषां हृदि स्थितः सन् (अचिक्रदत्) शब्दायते, उपदिशति, सत्प्रेरणां करोति। क्रदि आह्वाने रोदने च, क्रद इत्येके, स्वार्थे णिचि, लुङि रूपम्। (महान्) महत्त्वोपेतः सः (मित्रः न) सुहृदिव (दर्शतः) दर्शनीयः अस्ति। स एव (सूर्येण) आदित्येन (सम्) संगतः सन् (दिद्युते) प्रकाशते, ‘यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑षः॒ सो᳕ऽसाव॒हम्’ य० ४०।१७ इति श्रुतेः ॥१॥२ ‘अचिक्रदद् वृषा’ इत्यत्र शब्दशक्तिमूलेन ध्वनिना ‘वर्षकः पर्जन्यो गर्जति’ इति द्वितीयेऽप्यर्थे द्योतिते सति पर्जन्यसोमयोरुपमानोपमेयभावो व्यज्यते, तेनोपमाध्वनिः। ‘मित्रो न दर्शतः’ इत्यत्र च वाच्या पूर्णोपमा ॥१॥

भावार्थभाषाः -

ये सूक्ष्मदर्शिनः सन्ति ते सूर्यपर्जन्यादौ परमेश्वरमेव साक्षात्कुर्वते, यतस्तत्र सर्वा तापप्रकाशजलवर्षणादिशक्तिस्तत्प्रदत्तैवास्ते ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।२।६, य० ३८।२२ ऋषिः दीर्घतमाः, ‘सं सूर्येण दिद्युतदुदधिर्निधिः’ इति पाठः, परोष्णिक् छन्दः। साम० १०४२। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्युदग्निपक्षे व्याख्यातवान्।