आ꣣विश꣢न्क꣣ल꣡श꣢ꣳ सु꣣तो꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣡र्ष꣢न्न꣣भि꣡ श्रियः꣢꣯ । इ꣢न्दु꣣रि꣡न्द्रा꣢य धीयते ॥४८९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आविशन्कलशꣳ सुतो विश्वा अर्षन्नभि श्रियः । इन्दुरिन्द्राय धीयते ॥४८९॥
आ꣣विश꣢न् । आ꣣ । विश꣢न् । क꣣ल꣡श꣢म् । सु꣣तः꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡र्ष꣢꣯न् । अ꣣भि । श्रि꣡यः꣢꣯ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । धी꣣यते ॥४८९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा सब शोभाओं को प्रदान करता है।
(सुतः) अभिषुत किया हुआ अर्थात् ध्यान द्वारा प्रकट किया हुआ, (कलशम्) हृदय-रूप द्रोणकलश में (आविशन्) प्रवेश करता हुआ, (विश्वाः) समस्त (श्रियः) शोभाओं को अथवा सद्गुणरूप ऐश्वर्यों को (अर्षन्) प्राप्त कराता हुआ (इन्दुः) चन्द्रमा के समान सौम्य कान्तिवाला और सोम ओषधि के समान रस से परिपूर्ण परमेश्वर (इन्द्राय) जीवात्मा की उन्नति के लिए (धीयते) संमुख स्थापित किया जाता है ॥३॥
परमात्मा में ध्यान लगाने से जीवात्मा सब प्रकार का उत्कर्ष प्राप्त कर सकता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
स सोमः परमात्मा विश्वाः श्रियः प्रयच्छतीत्याह।
(सुतः) अभिषुतः, ध्यानद्वारा प्रकटितः, (कलशम्) हृदयरूपं द्रोणकलशम् (आविशन्) प्रविशन्, (विश्वाः) समस्ताः (श्रियः) शोभाः सद्गुणैश्वर्याणि वा (अर्षन्) आर्षयन् प्रापयन्। ऋषी गतौ, तुदादिः। लुप्तणिच्कः प्रयोगः। (इन्दुः) चन्द्रवत् सौम्यकान्तिः सोमौषधिवद् रसपूर्णः परमेश्वरः (इन्द्राय) जीवात्मने तदुन्नतये इत्यर्थः (धीयते) पुरतः स्थाप्यते ॥३॥
परमात्मनि ध्यानेन जीवात्मा सर्वविधमुत्कर्षं प्राप्तुं शक्नोति ॥३॥