शे꣢षे꣣ वने꣡षु꣢ मा꣣तृ꣢षु꣣ सं꣢ त्वा꣣ म꣡र्ता꣢स इन्धते । अ꣡त꣢न्द्रो ह꣣व्यं꣡ व꣢हसि हवि꣣ष्कृ꣢त꣣ आ꣢꣫दिद्दे꣣वे꣡षु꣢ राजसि ॥४६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)शेषे वनेषु मातृषु सं त्वा मर्तास इन्धते । अतन्द्रो हव्यं वहसि हविष्कृत आदिद्देवेषु राजसि ॥४६॥
शे꣡षे꣢꣯ । व꣡ने꣢꣯षु । मा꣣तृ꣡षु꣢ । सम् । त्वा꣣ । म꣡र्ता꣢꣯सः । इ꣣न्धते । अ꣡त꣢꣯न्द्रः । अ । त꣣न्द्रः । ह꣣व्यम् । व꣣हसि । हविष्कृ꣡तः꣢ । ह꣣विः । कृ꣡तः꣢꣯ । आत् । इत् । दे꣣वे꣡षु꣢ । रा꣣जसि ॥४६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब भौतिक अग्नि के सादृश्य से परमात्मा के कर्म का वर्णन करते हैं।
प्रथम—यज्ञाग्नि के पक्ष में। हे यज्ञाग्नि ! तू (वनेषु) वनों में, वन के काष्ठों में, और (मातृषु) अपनी माता-रूप अरणियों के गर्भ में (शेषे) सोता है, छिपे रूप से विद्यमान रहता है। (त्वा) तुझे (मर्तासः) याज्ञिक मनुष्य (समिन्धते) अरणियों को मथकर प्रज्वलित करते हैं। प्रज्वलित हुआ तू (अतन्द्रः) तन्द्रारहित होकर, निरन्तर (हविष्कृतः) हवि देनेवाले यजमान की (हव्यम्) आहुत हवि को (वहसि) स्थानान्तर में पहुँचाता है। (आत् इत्) उसके अनन्तर ही, तू (देवेषु) विद्वान् जनों में (राजसि) राजा के समान प्रशंसित होता है ॥ यहाँ अचेतन यज्ञाग्नि में चेतन के समान व्यवहार आलङ्कारिक है। अचेतन में शयन और तन्द्रा का सम्बन्ध सम्भव न होने से शयन की प्रच्छन्नरूप से विद्यमानता होने में लक्षणा है, इसी प्रकार अतन्द्रत्व की नैरन्तर्य में लक्षणा है। वनों में शयन करता है, इससे अग्नि एक वनवासी मुनि के समान है, यह व्यञ्जना निकलती है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। हे परमात्मन् ! आप (वनेषु) वनों में और (मातृषु) वनों की मातृभूत नदियों में (शेषे) शयन कर रहे हो, अदृश्यरूप से विद्यमान हो। (त्वा) उन आपको (मर्तासः) मनुष्य, योगाभ्यासी जन (समिन्धते) संदीप्त करते हैं, जगाते हैं, योगसाधना द्वारा आपका साक्षात्कार करते हैं। अन्यत्र कहा भी है—पर्वतों के एकान्त में और नदियों के संगम पर ध्यान द्वारा वह परमेश्वर प्रकट होता है। साम० १४३। (अतन्द्रः) निद्रा, प्रमाद, आलस्य आदि से रहित आप, उनकी (हव्यम्) आत्मसमर्पणरूप हवि को (वहसि) स्वीकार करते हो। (आत् इत्) तदनन्तर ही, आप (देवेषु) उन विद्वान् योगी जनों में, अर्थात् उनके जीवनों में (विराजसि) विशेषरूप से शोभित होते हो ॥ यहाँ भी परमात्मा के निराकार होने से उसमें शयन और संदीपन रूप धर्म संगत नहीं हैं, इस कारण शयन की गूढरूप से विद्यमानता होने में और संदीपन की योग द्वारा साक्षात्कार करने में लक्षणा है ॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, और भौतिक अग्नि एवं परमेश्वर का उपमानोपमेयभाव ध्वनित हो रहा है ॥२॥
जैसे भौतिक अग्नि वन के काष्ठों में अथवा अरणियों में अदृश्य हुआ मानो सो रहा होता है और अरणियों के मन्थन से यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त हो जाता है, वैसे ही परमेश्वर भी वनों के तरु, लता, पत्र, पुष्प, नदी, सरोवर आदि के सौन्दर्य में प्रच्छन्न रूप से स्थित रहता है और वहाँ ध्यानस्थ योगियों द्वारा हृदय में प्रदीप्त किया जाता है। जैसे यज्ञवेदि में प्रदीप्त किया हुआ भौतिक अग्नि सुगन्धित, मधुर, पुष्टिदायक और आरोग्यवर्धक घी, कस्तूरी, केसर, कन्द, किशमिश, अखरोट, खजूर, सोमलता, गिलोय आदि की आहुति को वायु के माध्यम से स्थानान्तर में पहुँचाकर वहाँ आरोग्य की वृद्धि करता है, वैसे ही परमेश्वर उपासकों की आत्मसमर्पण-रूप हवि को स्वीकार करके उनमें सद्गुणों को बढ़ाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ भौतिकाग्निसादृश्येन परमात्मनः कृत्यं वर्ण्यते।
प्रथमः—यज्ञाग्निपरः। हे यज्ञाग्ने ! त्वम् (वनेषु) काननेषु, तत्काष्ठे- ष्विति यावत्, (मातृषु) मातृभूतासु अरणीषु च (शेषे२) स्वपिषि, प्रच्छन्नरूपेण विद्यमानो भवसि। (त्वा) त्वाम् (मर्तासः) याज्ञिका मनुष्याः (समिन्धते) अरणिमन्थनद्वारा प्रदीपयन्ति। (प्रदीप्तः) त्वम् (अतन्द्रः) अनलसः सन् (हव्यम्) हुतं हविर्द्रव्यम् (वहसि) स्थानान्तरं प्रापयसि। (आत्३ इत्) तदनन्तरमेव त्वम् (देवेषु) विद्वज्जनेषु (राजसि) राजवत् प्रशंसितो भवसि ॥ अत्र अचेतने यज्ञाग्नौ चेतनवद् व्यवहार आलङ्कारिकः। अचेतने शयनतन्द्रयोः सम्बन्धासंभवात् शयनस्य प्रच्छन्नरूपेण विद्यमानत्वे लक्षणा, अतन्द्रत्वस्य नैरन्तर्ये लक्षणा। वनेषु शेषे इत्यनेन च अग्नेर्मुनित्वं व्यङ्ग्यम् ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। हे अग्ने परमात्मन् ! त्वम् (वनेषु) विपिनेषु, (मातृषु) तन्मातृभूतासु नदीषु च। मातर इति नदीनाम। निघं० १।१३। (शेषे) स्वपिषि, अदृश्यतया विद्यमानोऽसि। (त्वा) त्वाम् (मर्तासः) मनुष्याः, योगाभ्यासिनो जनाः (समिन्धते) संदीपयन्ति, जागरयन्ति, योगसाधनाद्वारा साक्षात्कुर्वन्तीत्यर्थः। उक्तं चान्यत्र—उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत ॥ साम० १४३ इति। त्वं च (अतन्द्रः) निद्राप्रमादालस्यादिरहितः सन्, तेषाम् (हव्यम्) आत्मसमर्पणरूपं हविः (वहसि) स्वीकरोषि। (आत् इत्) तदनन्तरमेव त्वम् (देवेषु) विद्वत्सु तेषु योगिजनेषु, तज्जीवनेषु (राजसि) विशेषेण राजमानो भवसि ॥ अत्रापि परमात्मनो निराकारत्वात् तत्र शयनसमिन्धनधर्मौ नोपपद्येते इति शयनस्य गूढतया विद्यमानत्वे समिन्धनस्य च योगसाक्षात्कारे लक्षणा ॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। भौतिकाग्निपरमात्माग्न्योरुपमानोपमेयभावश्च द्योत्यते ॥२॥
यथा भौतिकाग्निर्वनकाष्ठेष्वरणिषु वादृश्यः सन् स्वपितीव, अरण्योर्मन्थनेन च यज्ञकुण्डे प्रदीप्यते, तथा परमेश्वरोऽपि काननानां तरुलतापत्रपुष्पसरित्सरोवरादिसौन्दर्ये प्रयच्छन्नस्तिष्ठति, तत्र ध्यान- परायणैर्योगिभिर्हृदये प्रदीप्यते च। यथा यज्ञवेद्यां प्रदीपितो भौतिकाग्निः सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यवर्द्धकं घृतकस्तूरीकेसरकन्द- द्राक्षाक्षोटखर्जूरसोमलतागुडूच्यादिकं हुतं हविर्द्रव्यं वायुमाध्यमेन स्थानान्तरं प्रापय्य तत्रारोग्यं वर्द्धयति, तथा परमेश्वर उपासका- नामात्समर्पणरूपं हव्यं स्वीकृत्य तेषु सद्गुणान् संवर्द्धयति ॥२॥