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इ꣢न्द्रो꣣ वि꣡श्व꣢स्य राजति ॥४५६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्रो विश्वस्य राजति ॥४५६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । रा꣣जति ॥४५६॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 456 | (कौथोम) 5 » 2 » 2 » 10 | (रानायाणीय) 4 » 11 » 10


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में इन्द्र के महत्त्व का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः) परब्रह्म परमेश्वर (विश्वस्य) सकल ब्रह्माण्ड का, (इन्द्रः) अखण्ड जीवात्मा (विश्वस्य) सकल शरीर का, और (इन्द्रः) प्रजाओं से निर्वाचित राजा (विश्वस्य) सकल राष्ट्र का (राजति) सम्राट् है ॥१०॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा, जीवात्मा और राजा को अपने-अपने क्षेत्र का सम्राट् मानकर उनसे यथायोग्य लाभ प्राप्त करने चाहिएँ ॥१०॥ इस दशति में अग्नि और इन्द्र नामों से परमात्मा, राजा आदि के गुण-कर्मों का वर्णन होने से, उषा नाम से प्राकृतिक और आध्यात्मिक उषा का वर्णन होने से, और ब्रह्माण्ड, शरीर तथा राष्ट्र में सब देवों के कर्तृत्व आदि का निरूपण होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में ग्यारहवाँ खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रस्य महत्त्वमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः) परब्रह्म परमेश्वरः (विश्वस्य) सकलस्य ब्रह्माण्डस्य, (इन्द्रः) अखण्डो जीवात्मा (विश्वस्य) सकलस्य शरीरस्य, (इन्द्रः) प्रजाभिर्निर्वाचितो राजा च (विश्वस्य) सकलस्य राष्ट्रस्य (राजति) सम्राड् भवति ॥१०॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मानं जीवात्मानं नृपतिं च स्वस्वक्षेत्रस्य सम्राजं मत्वा यथायोग्यं लाभास्तेभ्यः प्राप्तव्याः ॥१०॥ अत्राग्निनाम्ना इन्द्रनाम्ना च परमात्मनृपत्यादीनां गुणकर्मवर्णनाद्, उषर्नाम्ना प्राकृतिक्या आध्यात्मिक्याश्च उषसो वर्णनाद्, ब्रह्माण्डे शरीरे राष्ट्रे च विश्वेषां देवानां कर्तृत्वादिनिरूपणाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्ति ॥ इति पञ्चमे प्रपाठके द्वितीयार्द्धे द्वितीया दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याय एकादशः खण्डः ॥