यो꣢꣫ विश्वा꣣ द꣡य꣢ते꣣ व꣢सु꣣ हो꣡ता꣢ म꣣न्द्रो꣡ जना꣢꣯नाम् । म꣢धो꣣र्न꣡ पात्रा꣢꣯ प्रथ꣣मा꣡न्य꣢स्मै꣣ प्र꣡ स्तोमा꣢꣯ यन्त्व꣣ग्न꣡ये꣢ ॥४४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यो विश्वा दयते वसु होता मन्द्रो जनानाम् । मधोर्न पात्रा प्रथमान्यस्मै प्र स्तोमा यन्त्वग्नये ॥४४॥
यः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द꣡य꣢꣯ते । व꣡सु꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । म꣣न्द्रः꣢ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । म꣡धोः꣢꣯ । न । पा꣡त्रा꣢꣯ । प्र꣣थमा꣢नि꣢ । अ꣣स्मै । प्र꣢ । स्तो꣡माः꣢꣯ । य꣣न्तु । अग्न꣡ये꣢ ॥४४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा को स्तोत्र अर्पित करने के लिए कहा गया है।
(होता) विविध वस्तुओं और शुभ गुणों का प्रदाता, (जनानाम्) मनुष्यों का (मन्द्रः) आनन्दजनकः (यः) जो परमेश्वर (विश्वा) समस्त (वसु) धनों को (दयते) प्रदान करता है, (अस्मै) ऐसे इस (अग्नये) नायक परमेश्वर के लिए (मधोः) शहद के (प्रथमा) श्रेष्ठ (पात्रा न) पात्रों के समान (स्तोमाः) मेरे स्तोत्र (प्रयन्तु) भली-भाँति पहुँचें ॥१०॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१०॥
जैसे घर में आये हुए विद्वान् अतिथि को मधु, दही, दूध आदि से भरे हुए पात्र सत्कारपूर्वक समर्पित किये जाते हैं, वैसे ही परम दयालु, परोपकारी के लिए भक्तिभाव से भरे हुए स्तोत्र समर्पित करने चाहिएँ ॥१०॥ इस दशति में परमात्मा के गुणवर्णनपूर्वक उससे समृद्धि आदि की याचना की गयी है, अतः इसके विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ प्रथम प्रपाठक में पूर्व अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ प्रथम अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मने स्तोमान् समर्पयितुमाह।
(होता) विविधवस्तूनां शुभगुणानां वा दाता, (जनानाम्) मनुष्याणाम् (मन्द्रः) आनन्दजनकः। (मन्दयति) मोदयतीति मन्द्रः। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु इति धातोः स्फायितञ्चिवञ्चि०’ उ० २।१३ इति रक्। (यः) परमेश्वरः (विश्वा) विश्वानि समस्तानि (वसु) वसूनि धनानि (दयते) ददाति। दय धातुर्दानाद्यनेककर्मा। निरु० ४।१७। (अस्मै) एतादृशाय (अग्नये) नायकाय परमेश्वराय (मधोः२) मधुनः। अत्र लिङ्गव्यत्ययः। (प्रथमानि) श्रेष्ठानि (पात्रा) पात्राणि (न) इव (स्तोमाः) मदीयानि स्तोत्राणि (प्र यन्तु)३ प्रकृष्टतया गच्छन्तु। विश्वा, वसु, पात्रा इति सर्वत्र शेश्छन्दसि बहुलम्।’ अ० ६।१।७० इति जसः शसो वा शेर्लोपः ॥१०॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१०॥
यथा गृहागताय विदुषेऽतिथये मधुदधिदुग्धादिपूर्णानि पात्राणि ससत्कारं समर्प्यन्ते, तथैव परमदयालवे परोपकारिणे परमात्मने भक्तिभावभरिताः स्तोमाः समर्पणीयाः ॥१०॥ अत्र परमात्मगुणवर्णनपूर्वकं ततः समृद्ध्यादियाचनादेतद्दशत्य- र्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरूह्या ॥ इति प्रथमे प्रपाठके पूर्वार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति प्रथमेऽध्याये चतुर्थः खण्डः ॥