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इ꣡न्दुः꣢ पविष्ट꣣ चा꣢रु꣣र्म꣡दा꣢या꣣पा꣢मु꣣प꣡स्थे꣢ क꣣वि꣡र्भ꣢꣯गाय ॥४३१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्दुः पविष्ट चारुर्मदायापामुपस्थे कविर्भगाय ॥४३१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्दुः꣢ । प꣣विष्ट । चा꣡रुः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य । अ꣣पा꣢म् । उ꣣प꣡स्थे꣢ । उ꣣प꣢ । स्थे꣣ । कविः꣢ । भ꣡गा꣢꣯य ॥४३१॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 431 | (कौथोम) 5 » 1 » 5 » 5 | (रानायाणीय) 4 » 9 » 5


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में पुनः परमेश्वर और राजा का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(चारुः) रमणीय, (कविः) दूरदर्शी, मेधावी, (इन्दुः) चन्द्रमा के समान आह्लादक और सोम ओषधि के समान रसागार, शान्ति के सौम्य प्रकाश से प्रदीप्त करनेवाला परमेश्वर और राजा (मदाय) आनन्द उत्पन्न करने के लिए, और (भगाय) ऐश्वर्य उत्पन्न करने के लिए (अपाम्) प्राणों के (वा) जल के समान शान्त प्रजाओं के (उपस्थे) मध्य में स्थित होकर (पविष्ट) पवित्रता देवे ॥५॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥५॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर के समान राजा भी चारुदर्शन, विवेकी, क्रान्तदर्शी, चन्द्रमा के समान मधुर, प्रेमरस तथा वीररस से परिप्लुत, परमानन्द और धन का दाता, पवित्र एवं पवित्रतादायक होवे ॥५॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमेश्वरनृपत्योर्विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(चारुः) रमणीयः (कविः) क्रान्तद्रष्टा, मेधावी (इन्दुः) चन्द्रवदाह्लादकः सोमौषधिवद् रसागारः, शान्तेः सौम्यप्रकाशेन प्रदीपयिता परमेश्वरो नृपतिर्वा। (इन्दुः) इन्धेः उनत्तेर्वा। निरु० १०।४१। (मदाय) आनन्दं जनयितुम् (भगाय) ऐश्वर्यं च जनयितुम् (अपाम्) प्राणानाम्। प्राणा वा आपः। तै० ब्रा० ३।२।५।२। जलवत् शान्तानां प्रजानां२ वा (उपस्थे) मध्ये स्थित्वा (पविष्ट) पवित्रतां सम्पादयेत्। पूङ् पवने, लिङर्थे लुङ्, अडागमाभावश्छान्दसः ॥५॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥५॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर इव नृपतिरपि चारुदर्शनो, विवेकी, क्रान्तद्रष्टा, चन्द्र इव मधुरः, प्रेमरसेन वीररसेन च परिप्लुतः, परमानन्दधनप्रदः, पवित्रः पावकश्च भवेत् ॥५॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०९।१३। २. (आपः) जलानीव प्रजाः इति ऋ० ५।३४।९ भाष्ये द०।