वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

प꣡व꣢स्व सोम म꣣हा꣡न्त्स꣢मु꣣द्रः꣢ पि꣣ता꣢ दे꣣वा꣢नां꣣ वि꣢श्वा꣣भि꣡ धाम꣢꣯ ॥४२९॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

पवस्व सोम महान्त्समुद्रः पिता देवानां विश्वाभि धाम ॥४२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । महा꣢न् । स꣣मुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । पि꣣ता꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । वि꣡श्वा꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । धा꣡म꣢꣯ ॥४२९॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 429 | (कौथोम) 5 » 1 » 5 » 3 | (रानायाणीय) 4 » 9 » 3


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में सोम नाम से परमेश्वर और राजा से प्रार्थना की जा रही है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (सोम) सब जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर ! आप (महान्) महान् हो, (समुद्रः) रस के पारावार हो, (देवानाम्) प्रकाशक विद्वानों के, सूर्य-चन्द्र-विद्युत्-अग्नि आदियों के और ज्ञानेन्द्रिय-मन-बुद्धि आदियों के (पिता) पालनकर्ता हो। आप (विश्वा धाम) सब स्थानों को वा हृदय धामों को (अभि पवस्व) व्याप्त करके पवित्र करो ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (सोम) चन्द्रमा के समान आह्लादक प्रजारञ्जक राजन् ! आप (महान्) गुणों और कर्मों में महान् हो, (समुद्रः) प्रेमरस, शौर्य और सम्पदाओं के सागर हो, (देवानाम्) दानादि गुणों से युक्त प्रजाजनों के (पिता) पालक हो। आप (विश्वा धाम) राष्ट्र के शिक्षा, न्याय, कृषि, व्यापार, उद्योग, सेना आदि सब विभागों में (अभि) पहुँचकर (पवस्व) उन्हें निर्दोष और पवित्र करो ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है और सोमपदवाच्य परमात्मा और राजा में समुद्र का आरोप होने से रूपकालङ्कार भी है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमात्मा सबके हृदयों को पवित्र करता है, वैसे ही राजा राष्ट्र के सब विभागों को भ्रष्टाचार से रहित तथा पवित्र करे ॥३॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ सोमनाम्ना परमेश्वरो राजा च प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपरः। हे (सोम) सर्वजगदुत्पादक परमेश्वर ! त्वम् (महान्) महिमोपेतः असि, (समुद्रः) रसस्य पारावारोऽसि, (देवानाम्) प्रकाशकानां विदुषां, सूर्यचन्द्रविद्युदग्न्यादीनां, ज्ञानेन्द्रियमनोबुद्ध्यादीनां च (पिता) पालकः असि। त्वम् (विश्वा धाम) विश्वानि धामानि, सर्वाणि स्थानानि हृदयधामानि वा। ‘शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७०’ इति शसः शेर्लोपः। (अभि पवस्व) अभिव्याप्य पुनीहि। पूङ् पवने, भ्वादिः ॥ अथ द्वितीयः—राजपरः। हे (सोम) चन्द्रवदाह्लादक प्रजारञ्जक राजन् ! त्वम् (महान्) गुणैः कर्मभिश्च महत्त्वयुक्तोऽसि, (समुद्रः) प्रेमरसस्य, शौर्यस्य, सम्पदां च सागरोऽसि, (देवानाम्) दानादिगुणयुक्तानां प्रजाजनानाम् (पिता) पालकोऽसि। त्वम् (विश्वा धाम) राष्ट्रस्य सर्वान् विभागान् शिक्षान्यायकृषिव्यापारोद्योगसैन्यादीन् (अभि) अभिव्याप्य, तानि (पवस्व) निर्दोषाणि पवित्राणि च विधेहि ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः, सोमे समुद्रत्वारोपाद् रूपकं च ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा परमात्मा सर्वेषां हृदयानि पुनाति, तथा राजा राष्ट्रस्य सर्वान् विभागान् भ्रष्टाचाररहितान् पवित्रांश्च विदधातु ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०९।४, साम० १२४१।