प्र꣢ म꣣न्दि꣡ने꣢ पितु꣣म꣡द꣢र्च꣣ता व꣢चो꣣ यः꣢ कृ꣣ष्ण꣡ग꣢र्भा नि꣣र꣡ह꣢न्नृ꣣जि꣡श्व꣢ना । अ꣣वस्य꣢वो꣣ वृ꣡ष꣢णं꣣ व꣡ज्र꣢दक्षिणं म꣣रु꣡त्व꣢न्तꣳ स꣣ख्या꣡य꣢ हुवेमहि ॥३८०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना । अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तꣳ सख्याय हुवेमहि ॥३८०॥
प्रं꣢ । म꣣न्दि꣡ने꣢ । पि꣣तुम꣢त् । अ꣣र्चत । व꣡चः꣢꣯ । यः । कृ꣣ष्ण꣡ग꣢र्भाः । कृ꣣ष्ण꣢ । ग꣣र्भाः । निर꣡ह꣢न् । निः꣣ । अ꣡ह꣢꣯न् । ऋ꣣जि꣡श्व꣢ना । अ꣣वस्य꣡वः꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णम् । व꣡ज्र꣢꣯दक्षिणम् । व꣡ज्र꣢꣯ । द꣣क्षिणम् । मरु꣡त्व꣢न्तम् । स꣣ख्या꣡य꣢ । स꣣ । ख्या꣡य꣢꣯ । हु꣣वेमहि ॥३८०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य के गुण-कर्मों का वर्णन किया गया है।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे मनुष्यो ! तुम (मन्दिने) आनन्दयुक्त तथा आनन्दप्रदाता इन्द्र जगदीश्वर के लिए (पितुमत्) श्रद्धारूप रस से युक्त (वचः) स्तुतिवचन को (प्र अर्चत) प्रेरित करो, (यः) जो जगदीश्वर (ऋजिश्वना) सीधी जानेवाली किरणों से युक्त सूर्य के द्वारा (कृष्णगर्भाः) अन्धकारपूर्ण रात्रियों को (निरहन्) नष्ट करता है। आओ, (अवस्यवः) रक्षा की कामनावाले हम-तुम (वृषणम्) बादल से वर्षा करनेवाले अथवा सुखों के वर्षक, (वज्रदक्षिणम्) न्यायदण्ड जिसके प्रताप को बढ़ानेवाला है ऐसे, (मरुत्वन्तम्) प्रशस्त प्राणोंवाले इन्द्र जगदीश्वर को (सख्याय) मित्रता के लिए (हुवेमहि) पुकारें ॥ द्वितीय—गुरु-शिष्य के पक्ष में। हे सहपाठियो ! तुम (मन्दिने) आनन्ददाता तथा विद्या के ऐश्वर्य से युक्त आचार्य के लिए (पितुमत्) उत्कृष्ट अन्न सहित (वचः) आदरपूर्ण प्रियवचन (प्र अर्चत) उच्चारण करो, (यः) जो आचार्य (ऋजिश्वना) सरल शिक्षापद्धति से (कृष्णगर्भाः) काला अज्ञान जिनके गर्भ में है, ऐसी अविद्या-रात्रियों को (निरहन्) नष्ट करता है। (अवस्यवः)विद्या की तृप्ति को चाहनेवाले हम-तुम (वृषणम्) सद्गुणों की वर्षा करनेवाले, (वज्रदक्षिणम्) कुपथ से हटानेवाला है विद्यादान जिसका ऐसे, और (मरुत्वन्तम्) विद्यायज्ञ के ऋत्विज् प्रशस्त विद्वान् अध्यापक जिसके पास हैं, ऐसे आचार्य को (सख्याय) मैत्री के लिए (हुवेमहि) स्वीकार करें ॥११॥ इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ॥११॥
अहो, परमेश्वर हमारे प्रति कैसी मित्रता का निर्वाह करता है ! सर्वत्र व्याप्त हुई रात्रि के अन्धकार को निवारण करने और वर्षा करने में क्या हम जैसों का सामर्थ्य हो सकता है? वही हमारे उपकार के लिए इस प्रकार के विविध कर्मों को विना हमसे कोई शुल्क लिये कर रहा है। गुरु का भी हमारे प्रति कैसा महान् उपकार है, जो समस्त अविद्या-रात्रि को हटाकर ज्ञान की वर्षा से हमारी अन्तःकरण की भूमि को सरस करता है। इसलिए परमेश्वर और गुरु का हमें सर्वात्मना पूजन और सत्कार करना चाहिए ॥११॥ इस मन्त्र पर भरतस्वामी ने यह इतिहास लिखा है कि यह गर्भस्राविणी उपनिषद् है। कृष्ण नाम का एक असुर था, उस कृष्ण से गर्भवती हुई उसकी भार्याओं को इन्द्र ने गर्भ नष्ट करने के लिए मार डाला था। ऋजिश्वा नामक राजर्षि कृष्णासुर का शत्रु था, उसके हितार्थ ही इन्द्र ने कृष्णासुर का भी वध कर दिया और उसके पुत्र भी उत्पन्न न हों, इस हेतु से उसकी गर्भवती भार्याओं का भी वध कर दिया। सायण ने भी अपने भाष्य में ऐसा ही इतिहास लिखा है। किन्तु यह कल्पना का विलासमात्र है, इसमें वास्तविकता कुछ नहीं है। सत्यव्रत सामश्रमी ने सायण की व्याख्या को अरुचिकर मानते हुए टिप्पणी दी है कि—यहाँ विवरणकार का व्याख्यान अधिक उत्कृष्ट है, जिसने आधिदैविक अर्थ करते हुए लिखा है कि ‘कृष्णगर्भाः’ का तात्पर्य है काले मेघ में गर्भरूप से रहनेवाले जल, जिन्हें इन्द्र उनमें से निकालकर बरसा देता है। ‘निरहन्’ में हन् धातु अन्तर्णीतण्यर्थ है, जिसका अर्थ निकालना या नीचे गिरा देना है’’ ॥ इस दशति में इन्द्र की महिमा वर्णित होने, उसके स्तोत्र गाने के लिए प्रेरणा होने, द्यावापृथिवी के भी उसी के धर्म से धृत होने तथा इन्द्र नाम से राजा के भी कर्तव्य का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मन आचार्यस्य च गुणकर्माणि वर्णयति।
प्रथमः—परमात्मपरः। हे जनाः ! यूयम् (मन्दिने) आनन्दिताय आनन्दप्रदाय च इन्द्राय जगदीश्वराय। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु इति धातोस्ताच्छील्ये णिनिः। (पितुमत्) श्रद्धारूपेण रसेन युक्तम्। ‘तव त्ये पितो रसा रजांस्यनु विष्ठिताः। ऋ० १।१८७।४’ इति श्रुतेः, तत्रैव ‘यत् ते सोम। ऋ० १।१८७।९’ इत्युक्तेश्च पितुर्वै रसमयः सोमः। (वचः) स्तुतिवचनम् (प्र अर्चत) प्रेरयत, (यः) यो जगदीश्वरः (ऋजिश्वना) ऋजयः सरलगामिनः श्वानः किरणा यस्य स ऋजिश्वा सूर्यः तेन (कृष्णगर्भाः) कृष्णं तमः (गर्भे) यासां ताः कृष्णगर्भाः रात्रीः (निरहन्) निर्हन्ति। आगच्छत, (अवस्यवः) रक्षणं कामयमानाः यूयं वयम् च। अवस् शब्दात् आत्मन इच्छार्थे क्यच्, ‘क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७०’ इति उः प्रत्ययः। (वृषणम्) मेघाद् वृष्टिकर्तारं सुखवर्षकं वा, (वज्रदक्षिणम्) वज्रः न्यायदण्डः दक्षिणः प्रतापवृद्धिकरो यस्य तम्। दक्षतिः समर्द्धयतिकर्मा निरुक्ते १।६। (मरुत्वन्तम्) प्रशस्तप्राणम् इन्द्रं जगदीश्वरम् (सख्याय) सखिभावाय (हुवेमहि) आह्वयेम। ह्वेञ् धातोर्लिङि छान्दसं रूपम्। ‘हुवेम ह्वयेम’ इति निरुक्तम् ११।३१ ॥ अथ द्वितीयः—गुरुशिष्यपरः। हे सहाध्यायिनः ! यूयम् (मन्दिने) मोदप्रदाय इन्द्राय विद्यैश्वर्ययुक्ताय आचार्याय (पितुमत्) उत्कृष्टान्नसहितम्। पितुरित्यन्ननाम, पातेर्वा पिबतेर्वा प्यायतेर्वा। निरु० ९।२४। (वचः) आदरपूर्णं प्रियवचनम् (प्र अर्चत) उच्चारयत, (यः) आचार्यः (ऋजिश्वना२) ऋजुगतियुक्तेन अध्यापनमार्गेण, सरलशिक्षापद्धत्येत्यर्थः। ऋजि ऋजु यथा स्यात्तथा श्वयति गच्छतीति ऋजिश्वा सरलोऽध्यापनमार्गः तेन। (कृष्णगर्भाः) कृष्णम् अज्ञानं गर्भे यासां ताः अविद्यारात्रीः (निरहन्) हिनस्ति। (अवस्यवः) अवः विद्यातृप्तिम् इच्छवः यूयम् वयं च। अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यादिषु, अत्र तृप्त्यर्थे ग्राह्यः। (वृषणम्) सद्गुणवर्षकम्, (वज्रदक्षिणम्३) वज्रा कुपथाद् वर्जनकरी दक्षिणा विद्यादत्तिः यस्य तम्। वज्रः वर्जयतीति सतः। निरु० ३।११। (मरुत्वन्तम्४) प्रशस्ताः मरुतः विद्यायज्ञस्य ऋत्विजः विद्वांसोऽध्यापकाः यस्य तम् इन्द्रम् आचार्यम्। मरुत इति ऋत्विङ्नाम। निघं० ३।१८। (सख्याय) सखित्वाय (हुवेमहि) स्वीकुर्याम। हु दानादनयोः, आदाने चेत्येके ॥११॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥११॥
अहो, कीदृशं सख्यं परमेश्वरोऽस्मान् प्रति निर्वहति। सर्वत्र व्याप्ताया रात्रेन्धकारनिवारणे वृष्टिकरणे वा किमस्मादृशां सामर्थ्यम् ! स एवास्मदुपकाराय निश्शुल्कमेव तादृशानि विविधानि कर्माणि करोति। गुरोरप्यस्मान् प्रति कीदृशो महानुपकारो यो हि सकलामप्यविद्यानिशां निरस्य ज्ञानवृष्ट्यास्माकमन्तःकरणभूमिं सरसयति। अतः परमेश्वरो गुरुश्चास्माभिः सर्वात्मना पूजनीयः सत्करणीयश्च ॥११॥ अत्र भरतस्वामी इतिहासं प्रदर्शयन्नाह—“एषा गर्भस्राविणी उपनिषत्।....यः इन्द्रः कृष्णगर्भाः कृष्णेन असुरेण आहितगर्भाः कृष्णस्य भार्याः निरहन् निर्जघान, गर्भच्यावनाय। ऋजिश्वना राजर्षिणा हेतुना, तदर्थमित्यर्थः। ऋजिश्वनः शत्रुः कृष्णः। तं कृष्णं हत्वा तस्य सन्तानाभावाय गर्भानपि जघान” इति। सायणोऽपि६ तादृशमेवेतिहासं व्याजहार। तत्तु कल्पनाविलसितमेव, नात्र वस्तुतत्त्वं किञ्चिदित्यध्यवसेयम्। सत्यव्रतसामश्रमिणः सायणीयं व्याख्यानमरुचिकरं मन्यमाना आहुः—“विवरणकारस्य व्याख्यानमुत्कृष्टतरम्। तथाहि—कृष्णगर्भाः कृष्णो मेघः तस्य गर्भभूता आपः निरहन्। हन्तिर्गत्यर्थः अन्तर्णीतण्यर्थश्च द्रष्टव्यः। निर्गमितवान् पातितवानित्यर्थः।” इति ॥ अत्रेन्द्रमहिमवर्णनात्, तत्स्तोत्रं गातुं प्रेरणाद्, द्यावापृथिव्योरपि तद्धर्मधृतत्ववर्णनाद्, इन्द्रनाम्ना नृपतेरपि कर्तव्यवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति विजानीत ॥ इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये तृतीयः खण्डः ॥