पा꣣हि꣡ नो꣢ अग्न꣣ ए꣡क꣢या पा꣣ह्यू꣡३꣱त꣢ द्वि꣣ती꣡य꣢या । पा꣣हि꣢ गी꣣र्भि꣢स्ति꣣सृ꣡भि꣢रूर्जां पते पा꣣हि꣡ च꣢त꣣सृ꣡भि꣢र्वसो ॥३६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पाहि नो अग्न एकया पाह्यू३त द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पाहि चतसृभिर्वसो ॥३६॥
पा꣣हि꣢ । नः꣣ । अग्ने । ए꣡क꣢꣯या । पा꣣हि꣢ । उ꣣त꣢ । द्वि꣣ती꣡य꣢या । पा꣣हि꣢ । गी꣣र्भिः꣢ । ति꣣सृ꣡भिः꣢ । ऊ꣣र्जाम् । पते । पाहि꣢ । च꣣तसृ꣡भिः꣢ । व꣣सो ॥३६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर और विद्वान् मनुष्य से प्रार्थना करते हैं।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (ऊर्जां पते) अन्नों, रसों, बलों और प्राणों के अधिपति, (वसो) सर्वत्र बसनेवाले सर्वान्तर्यामी तथा निवासप्रदायक (अग्ने) परमात्मन् ! आप (नः) हमारी (एकया) एक ऋग्-रूप वाणी से (रक्ष) रक्षा कीजिए; (उत) और (द्वितीयया) दूसरी यजुःरूप वाणी से (पाहि) रक्षा कीजिए; (तिसृभिः) तीन ऋग्, यजुः और सामरूप सम्मिलित (गीर्भिः) वाणियों से (पाहि) रक्षा कीजिए; (चतसृभिः) चार ऋग्, यजुः, साम और अथर्वरूप सम्मिलित वाणियों से (पाहि) रक्षा कीजिए। यहाँ चार बार पाहि के प्रयोग से परमेश्वर द्वारा करणीय रक्षा की निरन्तरता सूचित होती है ॥ द्वितीय—विद्वान् के पक्ष में। हे (ऊर्जां पते) बलों के पालक, (वसो) उत्तम निवास देनेवाले, (अग्ने) अग्नि के तुल्य विद्या-प्रकाश से युक्त विद्वन् ! आप (एकया) एक उत्तम शिक्षा से (नः) हमारी (पाहि) रक्षा कीजिए; (उत) और (द्वितीयया) दूसरी अध्यापन-क्रिया से (पाहि) रक्षा कीजिए; (तिसृभिः) कर्म-काण्ड, उपासना-काण्ड और ज्ञान-काण्ड को जतानेवाली तीन (गीर्भिः) वाणियों से (पाहि) रक्षा कीजिए; (चतसृभिः) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनका विज्ञान करानेवाली चार प्रकार की वाणियों से (पाहि) रक्षा कीजिए ॥२॥४
चार वेदवाणियाँ परमेश्वर ने हमारे हित के लिए प्रदान की हैं। यदि हम वेदवर्णित ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान विषयों को पढ़कर कर्तव्य कर्मों का आचरण करें, तो निस्सन्देह हमारी रक्षा होगी। विद्वानों को चाहिए कि वेद पढ़ाकर वेदविहित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का उपदेश देकर हमारी रक्षा करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरो विद्वाँश्च प्रार्थ्यते।
प्रथमः—परमात्मपरः। हे (ऊर्जां पते) अन्नानां रसानां बलानां प्राणानां चाधिपते ! ऊर्जम् अन्नं रसं चेति निरुक्तम्। ९।४१। ऊर्जं बलप्राणनयोः, क्विप्। (वसो) वसति सर्वत्र वासयति वेति (वसुः), तादृश सर्वान्तर्यामिन् सर्वनिवासप्रद (अग्ने) परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मान् (एकया) ऋग्रूपया गिरा (पाहि) रक्ष, (उत) अपि च (द्वितीयया) यजुराख्यया गिरा (पाहि) रक्ष। (तिसृभिः) ऋग्यजुः- सामात्मिकाभिः संमिलिताभिः (गीर्भिः) वाग्भिः (पाहि) रक्ष। (चतसृभिः) ऋग्यजुःसामाथर्वरूपाभिः संमिलिताभिः वाग्भिः, (पाहि) रक्ष।२ अत्र चतुःकृत्वः पाहि इति पाठात् परमेश्वरेण करणीयाया रक्षायाः सातत्यं द्योत्यते ॥ अथ द्वितीयः—विद्वत्परः। हे (ऊर्जां पते) बलानां पालक, (वसो) सुवासप्रद (अग्ने) पावकवद् विद्वन् ! त्वम् (एकया) सुशिक्षया (नः) अस्मान् (पाहि) रक्ष, (उत) अपिच (द्वितीयया) अध्यापनक्रियया (पाहि) रक्ष, (तिसृभिः) कर्मोपासनाज्ञानज्ञापिकाभिः (गीर्भिः) वाग्भिः (पाहि) रक्ष, (चतसृभिः) धर्मार्थकाममोक्षविज्ञापिकाभिः वाग्भिः (पाहि) रक्ष ॥२॥३
चतस्रो वेदवाचः परमेश्वरेणास्माकं हिताय प्रदत्ताः सन्ति। यदि वयं वेदवर्णितान्ज्ञानकर्मोपासनाविज्ञानविषयानधीत्य कर्तव्यकर्माण्याचराम- स्तदा निःसंशयं वयं रक्षिता भवामः। विद्वभिर्वेदानध्याप्य वेदविहितान् धर्मार्थकाममोक्षाँश्चोपदिश्यास्माकं रक्षा विधेया ॥२॥