अ꣡ध्व꣢र्यो द्रा꣣व꣢या꣣ त्व꣢꣫ꣳ सोम꣣मि꣡न्द्रः꣢ पिपासति । उ꣡पो꣢ नू꣣नं꣡ यु꣢युजे꣣ वृ꣡ष꣢णा꣣ ह꣢री꣣ आ꣡ च꣢ जगाम वृत्र꣣हा꣢ ॥३०८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अध्वर्यो द्रावया त्वꣳ सोममिन्द्रः पिपासति । उपो नूनं युयुजे वृषणा हरी आ च जगाम वृत्रहा ॥३०८॥
अ꣡ध्व꣢꣯र्यो । द्रा꣣व꣡य꣢ । त्वम् । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । पि꣣पासति । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । नून꣢म् । यु꣣युजे । वृ꣡ष꣢꣯णा । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । आ । च꣣ । जगाम । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ ॥३०८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जीवात्मा के लिए शान्तरस को प्रवाहित करने के लिए कहा गया है।
हे (अध्वर्यो) अध्यात्म-यज्ञ के अध्वर्यु मेरे मन ! (त्वम्) तू (सोमम्) शान्तरस को (आ द्रावय) चारों ओर से प्रवाहित कर, (इन्द्रः) आत्मा (पिपासति) उसका प्यासा है। (नूनम्) मानो, (वृत्रहा) शान्ति के बाधक अशान्त विचारों के हन्ता परमात्मा ने भी, तेरे अध्यात्म-यज्ञ में आने के लिए (वृषणा) बलवान् (हरी) वेग से ले जानेवाले घोड़ों को (उपो युयुजे) रथ में नियुक्त कर लिया है, और साथ ही साथ (आजगाम च) वह आ भी गया है ॥६॥ इस मन्त्र में उत्प्रेक्षालङ्कार है। ‘नूनम्’ शब्द उत्प्रेक्षावाचक है। कहा भी है—‘मन्ये, शङ्के, ध्रुवम्, प्रायः, नूनम्, इव आदि शब्द उत्प्रेक्षावाचक होते हैं।’ शरीररहित परमात्मा का रथ में घोड़ों को नियुक्त करना असंभव होने से ‘मानो घोड़ों को नियुक्त किया है’ इस रूप में उत्प्रेक्षा की गयी है। साथ ही ‘आत्मा शान्तिरस का प्यासा है’ इस कारण द्वारा शान्तरस-प्रवाह करने रूप कार्य का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलङ्कार भी है। इसके अतिरिक्त ‘घोड़ों को नियुक्त करते ही आ पहुँचा है’ इस प्रकार कारण-कार्य की एक-साथ प्रतीति होने से अतिशयोक्ति अलङ्कार भी है ॥६॥
जीवात्मा को शान्तरस से तृप्त करने के लिए अपने मन को अध्वर्यु बनाकर सबको आन्तरिक शान्तियज्ञ का विस्तार करना चाहिए, क्योंकि शान्त आत्मा में ही परमात्मा का निवास होता है ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवत्मने शान्तरसं प्रवाहयितुमाह।
हे (अध्वर्यो) अध्यात्मयज्ञस्य ऋत्विग्भूत मम मानस ! अध्वर्युः अध्वरं युनक्ति, अध्वरस्य नेता, अध्वरं कामयते वा। अपि वाऽधीयाने युरुपबन्धः। निरु० १।७। मनो वा अध्वर्युः। श० १।५।१।२१। (त्वम् सोमम्) शान्तरसम् (आ द्रावय) समन्तात् प्रवाहय। द्रु गतौ धातोर्णिजन्तस्य रूपम्। संहितायां ‘अन्येषामपि दृश्यते’ इति दीर्घः। (इन्द्रः) जीवात्मा (पिपासति) पातुमिच्छति। (नूनम्) मन्ये, (वृत्रहा) शान्तिबाधकानाम् अशान्तविचाराणां हन्ता परमात्मापि त्वदध्यात्मयज्ञमागन्तुम् (वृषणा) वृषाणौ बलवन्तौ। वृषन् शब्दाद् द्वितीयाद्विवचनस्य ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति आकारादेशः। ‘वा षपूर्वस्य निगमे’ अ० ६।४।९ इति विकल्पनाद् उपधाया दीर्घाभावः। (हरी) वेगेन हर्तारौ अश्वौ (उपो युयुजे) उपनियुक्तवान् अस्ति, तत्समकालमेव (आजगाम च) आयातोऽप्यस्ति ॥६॥ अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः। ‘नूनम्’ इत्युत्प्रेक्षावाचकम्। “मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादयः। उत्प्रेक्षावाचकाः शब्दा इव शब्दोऽपि तादृशः” इत्युक्तेः। अशरीरस्य परमात्मनो रथेऽश्वनियोजनासंभवात् ‘मन्ये हरी युयुजे’ इत्युत्प्रेक्षते। किञ्च ‘इन्द्रः पिपासति’ इति कारणेन सोमाद्रावणरूपकार्यस्य समर्थनादर्थान्तरन्यासः। अपि च हरियोजन-आगमनरूप कारणकार्ययोर्युगपत् प्रतीतेरतिशयोक्तिरपि२ ॥६॥
जीवात्मानं शान्तिरसेन तर्पयितुं स्वकीयं मानसम् अध्वर्युं विधाय सर्वैराभ्यन्तरः शान्तियज्ञो विस्तारणीयः, यतः शान्त एवात्मनि परमात्मनो निवासः संजायते ॥६॥