वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

प्र꣡त्यु꣢ अदर्श्याय꣣त्यू꣢३꣱च्छ꣡न्ती꣢ दुहि꣣ता꣢ दि꣣वः꣢ । अ꣡पो꣢ म꣣ही꣡ वृ꣢णुते꣣ च꣡क्षु꣢षा꣣ त꣢मो꣣ ज्यो꣡ति꣢ष्कृणोति सू꣣न꣡री꣢ ॥३०३॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

प्रत्यु अदर्श्यायत्यू३च्छन्ती दुहिता दिवः । अपो मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी ॥३०३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣡ति꣢꣯ । उ꣣ । अदर्शि । आयती꣢ । आ꣣ । यती꣢ । उ꣣च्छ꣡न्ती꣢ । दुहि꣣ता꣢ । दि꣣वः꣢ । अ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । मही꣢ । वृ꣣णुते । च꣡क्षु꣢꣯षा । त꣡मः꣢ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । कृ꣣णोति । सून꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ ॥३०३॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 303 | (कौथोम) 4 » 1 » 2 » 1 | (रानायाणीय) 3 » 8 » 1


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र का देवता उषा है। इसमें उषा के आविर्भाव का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आयती) आती हुई, (उच्छन्ती) उदित होती हुई (दिवः दुहिता) द्यौ-लोक की पुत्री उषा (प्रति अदर्शि उ) दिखाई दी है। (मही) महती यह उषा (चक्षुषा) दर्शनप्रदान से (तमः) अन्धकार को (अप उ वृणुते) दूर कर रही है। (सूनरी) सुनेत्री यह उषा (ज्योतिः) ज्योति को (कृणोति) उत्पन्न कर रही है ॥१॥ इस मन्त्र में स्वभावोक्ति अलङ्कार है और प्राकृतिक उषा के वर्णन से आध्यात्मिक उषा का वर्णन ध्वनित हो रहा है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सूर्योदय से पूर्व व्याप्त घने रात्रि के अन्धकार को विच्छिन्न करता हुआ प्राकृतिक उषा का प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है, वैसे ही परमात्मारूप सूर्य के उदय से पूर्व मनोभूमि में व्याप्त तामसिक वृत्तियों के जाल को विच्छिन्न कर आध्यात्मिक उषा का प्रकाश आत्मा में फैलता है। यह उषा योगमार्ग में ऋतम्भरा प्रज्ञा के नाम से प्रसिद्ध है ॥१॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ प्रथमाया उषा देवता। उषस आविर्भावं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आयती) आगच्छन्ती (उच्छन्ती) उदयं भजमाना। उछी विवासे, भ्वादिस्तुदादिश्च। (दिवः दुहिता) द्युलोकस्य पुत्री उषाः (प्रति अदर्शि उ) प्रतिदृष्टास्ति खलु। (मही) महती एषा उषाः (चक्षुषा) दर्शनप्रदानेन। चष्टे पश्यतिकर्मा। निघं० ३।११। (तमः) अन्धकारम् (अप उ वृणुते) अपाकरोति। (सूनरी२) सुनेत्री इयम् उषाः। सूनरी इति उषर्नामसु पठितम्। निघं० १।८। (ज्योतिः) प्रकाशम् (कृणोति) जनयति। कृवि हिंसाकरणयोः इत्यस्य रूपम् ॥१॥ अत्र स्वभावोक्तिरलङ्कारः। प्राकृतिक्या उषसो वर्णनाच्चाध्यात्मिकी उषा व्यज्यते ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा सूर्योदयात् प्राग् व्याप्तं निविडं नैशं तमो व्युदस्यन् प्राकृतिक्या उषसः प्रकाशः सर्वत्र प्रसरति, तथैव परमात्मरूपस्य सूर्यस्योदयात् प्राङ्मनोभूमौ व्याप्तं तामसवृत्तीनां जालं विच्छिन्दन्नाध्यात्मिक्या उषसः प्रकाशो जीवात्मानं व्याप्नोति। सेयमुषा योगमार्गे ऋतम्भरा प्रज्ञेति३ नाम्ना ख्याता ॥१॥

टिप्पणी: १. ७।८१।१ ‘अपो महि व्ययति चक्षसे’ इति पाठः। साम० ७५१। २. सूनरी। शोभना नराः यस्याः स्तावकत्वेन भवन्ति सा सुनरी। सुनर्येव सूनरी—इति वि०। शोभनाः नराः स्तोतारः यस्याः सा सूनरी। सु सुष्ठु नयति प्राणिनः इति वा सूनरी—इति भ०। जनानां सुष्ठु नेत्री—इति सा०। सुष्ठु नयतीति सूनरी। नॄ नये। ‘अच इः’ इति इ प्रत्ययः। गतिसमासे ‘कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम्’ (परिभा० २८) इति वचनात् ‘कृदिकारादक्तिनः’ (पा० ४।१।४५ ग०) इति ङीष्। ‘परादिश्छन्दसि बहुलम्’ इत्युत्तरपदाद्युदातत्त्वम्। ‘निपातस्य च’ इति पूर्वपदस्य दीर्घः। इति ऋ० १।४८।५ भाष्ये सायणः। ३. योग० १।४८।