म꣣हे꣢ च꣣ न꣢ त्वा꣢द्रिवः꣣ प꣡रा꣢ शु꣣ल्का꣡य꣢ दीयसे । न꣢ स꣣ह꣡स्रा꣢य꣣ ना꣡युता꣢꣯य वज्रिवो꣣ न꣢ श꣣ता꣡य꣢ शतामघ ॥२९१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)महे च न त्वाद्रिवः परा शुल्काय दीयसे । न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥२९१॥
म꣣हे꣢ । च꣣ । न꣢ । त्वा꣣ । अद्रिवः । अ । द्रिवः । प꣡रा꣢꣯ । शु꣣ल्का꣡य꣢ । दी꣣यसे । न꣢ । स꣣ह꣡स्रा꣢य । न । अ꣣यु꣡ता꣢य । अ꣣ । यु꣡ता꣢꣯य । व꣣ज्रिवः । न꣢ । श꣣ता꣡य꣢ । श꣣तामघ । शत । मघ ॥२९१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह विषय है कि परमेश्वर को हम बड़े-से-बड़े मूल्य पर भी न छोड़ें।
हे (अद्रिवः) आनन्दरूप मेघों के स्वामी, आनन्दरस-वर्षक इन्द्र परमात्मन् ! (त्वा) तुम (महे च) किसी बड़ी भी (शुल्काय) कीमत पर, हमसे (न) नहीं (परादीयसे) छोड़े जा सकते हो। हे (वज्रिवः) प्रशस्त विज्ञानमय नीति के अनुसार चलनेवाले ! (न) न (सहस्राय) हजार मुद्रा आदि का मूल्य लेकर, और (न) न ही (अयुताय) दस हजार मुद्रा आदि का मूल्य लेकर, छोड़े जा सकते हो। हे (शतामघ) अनन्त सम्पदावाले ! (न) न ही (शताय) दस हजार से भी सौ गुणा अधिक अर्थात् दस लाख मुद्रा आदि का मूल्य लेकर छोड़े जा सकते हो ॥९॥ इस मन्त्र में ‘अद्रिवः, वज्रिवः और शतामघ’ विशेषण साभिप्राय होने से परिकर अलङ्कार है। जो मेघ के समान सुखवर्षक, प्रशस्त नीति से चलनेवाला और अनन्त धनवान् है, वह भला किसी मूल्य पर कैसे छोड़ा जा सकता है ॥९॥
हे राजराजेश्वर परमात्मन् ! तुम्हें हमने अपने प्रेम से वश में कर लिया है। अब तुम्हें सौ, हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, करोड़, दस करोड़ मूल्य के बदले भी हम छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अङ्गीकृतं परमेश्वरं महताऽपि मूल्येन न परादद्म इत्याह।
हे (अद्रिवः२) आनन्दमेघानां स्वामिन्, आनन्दरसवर्षक परमात्मन् ! अद्रिरिति मेघनाम। निघं० १।१० (त्वा) त्वम्। युष्मच्छब्दात् प्रथमैकवचने ‘सुपां सुलुक्०’, अ० ७।१।३९ इति विभक्तेराकारादेशः। (महे) महतेऽपि (शुल्काय) मूल्याय (न) नैव (परादीयसे) परित्यज्यसे। हे (वज्रिवः३) प्रशस्तविज्ञाननीतियुक्त ! (न) नैव (सहस्राय) सहस्रमुद्रादिमूल्याय, (न) नापि (अयुताय) दशसहस्रसमुद्रादिमूल्याय परादीयसे। हे (शतामघ) अनन्तधन ! पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः। (न) नैव (शताय) ततोऽपि शतगुणिताय दशलक्षमुद्रादिमूल्यायेत्यर्थः, परादीयसे ॥९॥ अत्र ‘अद्रिवः, वज्रिवः, शतामघ’ इत्येतेषां विशेषणानां साभिप्रायत्वात् परिकरालङ्कारः४। यो हि सुखवर्षकः, शुभनीतिमान्, अपरिमितसम्पत्तियुक्तश्च वर्तते स केनापि मूल्येन कथं परित्यज्येत ॥९॥
हे राजराजेश्वर परमात्मन् ! त्वमस्माभिः प्रेम्णा वशीकृतोऽसि। साम्प्रतं त्वां शत-सहस्र-लक्ष-दशलक्ष-कोटि-दशकोटि-मूल्येनापि परिहर्तुं नोद्यताः स्मः ॥९॥