पा꣣हि꣡ गा अन्ध꣢꣯सो꣣ म꣢द꣣ इ꣡न्द्रा꣢य मेध्यातिथे । यः꣡ सम्मि꣢꣯श्लो ह꣢र्यो꣣र्यो꣡ हि꣢र꣣ण्य꣢य꣣ इ꣡न्द्रो꣢ व꣣ज्री꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥२८९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पाहि गा अन्धसो मद इन्द्राय मेध्यातिथे । यः सम्मिश्लो हर्योर्यो हिरण्यय इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥२८९॥
पा꣣हि꣢ । गाः । अ꣡न्ध꣢꣯सः । म꣡दे꣢꣯ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । मे꣣ध्यातिथे । मेध्य । अतिथे । यः꣢ । स꣡म्मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । ह꣡र्योः꣢꣯ । यः । हि꣣रण्य꣡यः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । व꣣ज्री꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥२८९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र के आतिथ्य की प्रेरणा दी गयी है।
हे (मेध्यातिथे) पवित्र इन्द्र रूप अतिथिवाले स्तोता ! तू (अन्धसः) भक्तिरस के (मदे) आनन्द में विह्वल होकर (इन्द्राय) इन्द्र परमेश्वर के लिए, अर्थात् उसके आतिथ्य के लिए (गाः) स्तुतिवाणियों को (पाहि) पाल-पोसकर प्रवृत्त कर, (यः) जो इन्द्र परमेश्वर (हर्योः) मन-प्राणरूप घोड़ों को (संमिश्लः) शरीर में नियुक्त करनेवाला है, और (यः) जो (हिरण्ययः) ज्योतिर्मय तथा यशोमय है, और जो (इन्द्रः) परमेश्वर (वज्री) वज्र के समान विद्यमान आक्रामक तथा रक्षक बल से युक्त होकर दुर्जनों को दण्डित एवं सज्जनों को रक्षित करनेवाला और (हिरण्ययः) सत्यरूप स्वर्णालङ्कार से अलङ्कृत है ॥७॥ इस मन्त्र में इन्द्राय गाः पाहि’ इससे यह उपमालङ्कार ध्वनित होता है कि जैसे कोई गृहस्थ विद्वान् अतिथियों के सत्कार के लिए गाय पालता है। ‘इन्द्रा, इन्द्रे’ में छेकानुप्रास, ‘हर्यो र्योहि’ में वृत्त्यनुप्रास, तथा ‘हिरण्यय, हिरण्ययः’ में यमक अलङ्कार है ॥७॥
अतिथि-सत्कार मनुष्य का परम धर्म है। इन्द्र परमेश्वर भी मनुष्य के हृदय-गृह का अतिथि है। उसके आतिथ्य के लिए उसे श्रद्धारस में विभोर होकर स्तुतिवाणीरूप अर्घ्य प्रदान करना चाहिए। इन्द्र परमेश्वर एक विलक्षण अतिथि है, जो अपना आतिथ्य करनेवाले को ज्योति, यश एवं सत्यादिरूप सुवर्ण प्रदान करता है, अपने बल से उसकी रक्षा करता है, उसके शरीर में मन और प्राण को नियुक्त करके उसे लम्बी आयु और सामर्थ्य देता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रस्यातिथ्याय प्रेरयति।
हे (मेध्यातिथे२) मेध्यः पवित्रः इन्द्रः अतिथिर्यस्य तथाभूत स्तोतः त्वम् (अन्धसः) श्रद्धारसस्य (मदे) आनन्दे मग्नः सन् (इन्द्राय) परमेश्वराय, तस्य आतिथ्यार्थम् इत्यर्थः (गाः३) स्तुतिवाचः (पाहि) पालय। (यः) इन्द्रः परमेश्वरः (हर्योः) मनःप्राणरूपयोः अश्वयोः (संमिश्लः) संमिश्रः तव शरीरे नियोक्ताऽस्ति, (यः) यश्च परमेश्वरः, (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः यशोमयश्चास्ति। ‘ज्योतिर्वै हिरण्यम्’ तां० ब्रा० ६।६।१०। ‘यशो वै हिरण्यम्’ ऐ० ब्रा० ७।१८। यः (इन्द्रः) परमेश्वरः (वज्री) वज्रधरः, वज्रवद् विद्यमानेन आक्रामकेण रक्षकेण च बलेन युक्तः सन् दुर्जनानां दण्डयिता सज्जनानां च रक्षकः, (हिरण्ययः) सत्यरूपस्वर्णालङ्कारालंकृतश्च वर्तते। सत्यं वै हिरण्यम्। गो० उ० ३।१७ ॥७॥ अत्र ‘इन्द्राय गाः पाहि’ इत्यनेन यथा कश्चिद् गृहस्थः विदुषामतिथीनां सत्काराय धेनूः पालयति तथेति उपमालङ्कारो ध्वन्यते। ‘इन्द्रा, इन्द्रो’ इत्यत्र छेकानुप्रासः, ‘हर्यो-र्योहि’ इत्यत्र वृत्त्यनुप्रासः, ‘हिरण्ययं हिरण्ययः’ इति च यमकम् ॥७॥
अतिथिसत्कारो मनुष्यस्य परमो धर्मः। इन्द्रः परमेश्वरोऽपि मनुष्यस्य हृदयगृहस्यातिथिः। तस्यातिथ्याय तेन श्रद्धारसनिर्भरेण सता स्ततिवाग्रूपोऽर्घ्यः प्रदेयः। स खलु विलक्षणोऽतिथिर्य आतिथेयाय ज्योतिर्यशः सत्यादिरूपं हिरण्यं प्रयच्छति, स्वबलेन तस्य रक्षां करोति, तच्छरीरे मनः प्राणं च संयोज्य तस्मै दीर्घमायुः सामर्थ्यं च ददाति ॥७॥