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क्वे꣢꣯यथ꣣ क्वे꣡द꣢सि पुरु꣣त्रा꣢ चि꣣द्धि꣢ ते꣣ म꣡नः꣢ । अ꣡ल꣢र्षि युध्म खजकृत्पुरन्दर꣣ प्र꣡ गा꣢य꣣त्रा꣡ अ꣢गासिषुः ॥२७१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः । अलर्षि युध्म खजकृत्पुरन्दर प्र गायत्रा अगासिषुः ॥२७१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

क्व꣢꣯ । इ꣣यथ । क्व꣢꣯ इत् । अ꣣सि । पुरुत्रा꣢ । चि꣣त् । हि꣢ । ते꣣ । म꣡नः꣢꣯ । अ꣡ल꣢꣯र्षि । यु꣣ध्म । खजकृत् । खज । कृत् । पुरन्दर । पुरम् । दर । प्र꣢ । गा꣣यत्राः꣢ । अ꣣गासिषुः ॥२७१॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 271 | (कौथोम) 3 » 2 » 3 » 9 | (रानायाणीय) 3 » 4 » 9


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा और राजा का आह्वान किया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र जगदीश्वर अथवा राजन् ! तू (क्व) कहाँ (इयथ) चला गया है? (क्व इत्) कहाँ (असि) है? (पुरुत्रा चित्) बहुतों में अर्थात् बहुतों के उद्धार में (ते) तेरा (मनः) मन लगा हुआ है। हे (युध्म) युद्ध-कुशल ! हे (खजकृत्) शत्रुओं का मन्थन करनेवाले ! हे (पुरन्दर) शत्रु की नगरियों को विदीर्ण करनेवाले ! तू (अलर्षि) गतिमय अर्थात् कर्मण्य है। (गायत्राः) प्रभुस्तुति के अथवा राष्ट्रगान के गायक जन (अगासिषुः) तेरा यशोगान कर रहे हैं ॥ वास्तव में परमात्मा हमें छोड़कर कहीं नहीं चला जाता, हम ही उसे छोड़ते हैं। यह भाषा की शैली है कि स्वयं को उपालम्भ देने के स्थान पर परमात्मा को उपालम्भ दिया जा रहा है। कहीं-कहीं परमात्मा के अनुग्रह-रहित होने पर स्वयं को ही उपालम्भ दिया गया है। जैसे हे वरुण परमात्मन् ! मुझसे क्या अपराध हो गया है कि आप मुझ अपने सबसे बड़े स्तोता का वध करना चाह रहे हैं? मेरा अपराध मेरे ध्यान में ला दीजिए, जिससे मैं उस अपराध को छोड़कर नमस्कारपूर्वक आपकी शरण में आ सकूँ। ऋ० ७।८६।४। एवं दोनों प्रकार की शैली वेदों में प्रयुक्त हुई है। राजा-परक अर्थ में शत्रु से पीड़ित प्रजाजन राजा को पुकार रहे हैं और उसे उद्बोधन दे रहे हैं, यह समझना चाहिए ॥९॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है। ‘क्वे क्वे’ में छेकानुप्रास और ‘युध्म, खजकृत्, पुरन्दर’ में पुनरुक्तवदाभास है ॥९॥

भावार्थभाषाः -

जैसे काम, क्रोध आदि शत्रुओं से पीड़ित जन सहायता के लिए परमात्मा को पुकारते हैं, वैसे ही मानव-शत्रुओं से और दैवी विपत्तियों से व्याकुल किये गये आर्त प्रजाजन राजा को बुलाते हैं ॥९॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं राजानं वाऽऽह्वयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र जगदीश्वर राजन् वा ! त्वम् (क्व) कुत्र (इयथ) इयेथ गतोऽसि। इण् गतौ धातोर्लिटि मध्यमैकवचने ‘इययिथ, इयेथ’ इत्यस्य स्थाने छान्दसं रूपम्। (क्व इत्) कुत्र खलु (असि) विद्यसे ? (पुरुत्रा चित्) बहुषु एव, बहूनाम् उद्धारे इत्यर्थः. पुरु इति बहुनाम। निघं० ३।१। ‘देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्त्येभ्यो द्वितीयासप्तम्योर्बहुलम्। अ० ५।४।५६’ इति सप्तम्यर्थे त्रा प्रत्ययः। (ते) तव (मनः) चित्तम्, तिष्ठतीति शेषः। हे (युध्म) युद्धकुशल ! योद्धुं शीलं यस्य स युध्मः। युध सम्प्रहारे धातोः ‘इषियुधीन्धि०। उ० १।१४५’ इति मक् प्रत्ययः। हे (खजकृत्) शत्रुमन्थनकर्तः ! खज मन्थे। शत्रुमन्थनकारणादेव खज इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। हे (पुरन्दर) शत्रुपुरां विदारयितः ! त्वम् (अलर्षि२) इयर्षि, कर्मव्यापृतोऽसि। ऋ गतौ धातोर्लटि, सिपि ‘दाधर्तिदर्धर्ति०। अ० ७।४।६५’ इत्यभ्यास्य हलादिशेषाभावः, रेफस्य लत्वम् इत्वाभावश्च निपात्यते। (गायत्राः३) प्रभुस्तुतेः राष्ट्रगानस्य वा गायका जनाः (प्र अगासिषुः) प्रकर्षेण तव यशोगानं कुर्वन्ति ॥ वस्तुतः परमात्माऽस्मान् परित्यज्य न कुत्रापि गच्छति, वयमेव तं परित्यजामः। भाषाशैलीयं यत् स्वात्मन उपालम्भस्थाने परमात्मोपालभ्यते। क्वचित् परमात्मनि निरनुग्रहे सति स्वात्मैवोपालम्भः। यथा—“किमाग॑ आस वरुण॒ ज्येष्ठं॒ यत् स्तो॒तारं॒ जिघां॑ससि॒ सखा॑यम्। प्र तन्मे॑ वोचो दूळभ स्वधा॒वोऽव॑ त्वाने॒ना नम॑सा तु॒र इ॑याम्” ऋ० ७।८६।४ इति। सेयं द्विविधापि शैली वेदेषु सम्प्रयुक्ता। नृपतिपक्षे तु शत्रुपीडितैः प्रजाजनैर्नृपतिराहूयते समुद्बोध्यते चेति ज्ञेयम् ॥९॥ अत्रार्थश्लेषोऽलङ्कारः। ‘क्वे, क्वे’ इति छेकानुप्रासः। ‘युध्म, खजकृत्, पुरन्दर’ इत्यत्र च पुनरुक्तवदाभासः ॥९॥

भावार्थभाषाः -

यथा कामक्रोधादिभिः शत्रुभिः पीडिता जनाः सहायतार्थं परमात्मानमाह्वयन्ति, तथैव मानवशत्रुभिर्दैवीभिर्विपत्तिभिश्च समुद्वेजिता आर्ताः प्रजाजना राजानमाकारयन्ति ॥९॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।१।७। २. अलर्षि गच्छसि शत्रून् प्रति—इति वि०। हिंसि शत्रून्—इति भ०। आगच्छ—इति सा०। ३. गायत्राः मन्त्राः—इति वि०। गानकुशलाः स्तोतारः—इति भ०। गानकुशला अस्मदीयाः स्तोतारः—इति सा०।