तु꣡भ्य꣢ꣳ सु꣣ता꣢सः꣣ सो꣡माः꣢ स्ती꣣र्णं꣢ ब꣣र्हि꣡र्वि꣢भावसो । स्तो꣣तृ꣡भ्य꣢ इन्द्र मृडय ॥२१३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तुभ्यꣳ सुतासः सोमाः स्तीर्णं बर्हिर्विभावसो । स्तोतृभ्य इन्द्र मृडय ॥२१३॥
तु꣡भ्य꣢꣯म् । सु꣣ता꣡सः꣢ । सो꣡माः꣢꣯ । स्ती꣣र्ण꣢म् । ब꣣र्हिः꣢ । वि꣣भावसो । विभा । वसो । स्तो꣡तृभ्यः꣢ । इ꣣न्द्र । मृडय ॥२१३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि परमेश्वर स्तोताओं को सुख प्रदान करे।
हे (विभावसो) तेज रूप धनवाले परमेश्वर ! (तुभ्यम्) आपके लिए (सोमाः) हमारे प्रीतिरस (सुतासः) निष्पादित किये गये हैं, और (बर्हिः) हृदयरूप आसन (स्तीर्णम्) बिछाया गया है। हृदयासन पर बैठकर, हमारे प्रीतिरूप सोमरसों का पान करके, हे (इन्द्र) परमेश्वर्यशाली परब्रह्म ! आप (स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं के लिए (मृडय) आनन्द प्रदान कीजिए ॥१०॥
परमेश्वर की उपासना से और उसके प्रति अपना प्रेमभाव समर्पण करने से उपासकों को ही सुख मिलता है॥१०॥ इस दशति में इन्द्र का तरणि आदि रूप में वर्णन होने से, इन्द्र के सहचारी मित्र, मरुत् और अर्यमा की प्रशंसा होने से, इन्द्र द्वारा जल-फेन आदि साधन से नमुचि का सिर काटने आदि का वर्णन होने से और इन्द्र नाम से विद्वान्, वैद्य, राजा और सेनापति आदि के अर्थों का भी प्रकाश होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की द्वितीय दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में दशम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरः स्तोतॄन् सुखयेदिति प्रार्थ्यते।
हे (विभावसो) दीप्तिधन परमेश्वर ! (तुभ्यम्) त्वदर्थम् (सोमाः) अस्माकं प्रीतिरसाः (सुतासः) सुताः अभिषुताः सन्ति, (बर्हिः) हृदयरूपं दर्भासनं च (स्तीर्णम्) प्रसारितम्। स्तॄञ् आच्छादने, क्र्यादिः, निष्ठायां रूपम्। हृदयासने निषद्य अस्माकं प्रीतिरूपान् सोमरसान् पीत्वा च, हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परब्रह्म ! त्वम् (स्तोतृभ्यः) स्तुतिं कुर्वद्भ्योऽस्मभ्यम् (मृडय) सुखं प्रयच्छ। मृड सुखने तुदादिर्वेदे चुरादिरपि दृश्यते। ॥१०॥
परमेश्वरस्योपासनेन तं प्रति स्वप्रीतिसमर्पणेन चोपासकानामेव सुखं जायते ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य तरण्यादिरूपेण वर्णनाद्, इन्द्रसहचारिणां मित्रमरुदर्यम्णां प्रशंसनाद्, इन्द्रद्वाराऽपां फेनादिना नमुच्यादेः शिरःकर्तनादिवर्णनात्, सोमं पातुमिन्द्राह्वानाद्, इन्द्रनाम्ना विद्वद्वैद्यनृपतिसेनापत्यादीनां चाप्यर्थप्रकाशनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति विभावनीयम् ॥ इति तृतीये प्रपाठके प्रथमार्धे द्वितीया दशतिः। इति द्वितीयाध्याये दशमः खण्डः ॥