इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा सु꣣ते꣡सु꣢ते꣣ न꣡क्ष꣢न्ते गिर्वणो꣣ गि꣡रः꣢ । गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥२०१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इमा उ त्वा सुतेसुते नक्षन्ते गिर्वणो गिरः । गावो वत्सं न धेनवः ॥२०१॥
इ꣣माः꣢ । उ꣣ । त्वा । सुते꣡सु꣢ते । सु꣣ते꣢ । सु꣣ते । न꣡क्ष꣢꣯न्ते । गि꣣र्वणः । गिः । वनः । गि꣡रः꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ ॥२०१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में स्तोता जन परमात्मा को कह रहे हैं।
हे (गिर्वणः) स्तुतिवाणियों से सेवनीय वा याचनीय परमैश्वर्यवन् इन्द्र परमात्मन् ! (इमाः उ) ये हमसे उच्चारण की जाती हुई (गिरः) वेदवाणियाँ अथवा स्तुतिवाणियाँ (सुतेसुते) प्रत्येक ज्ञान, कर्म और उपासना के व्यवहार में (त्वा) आपको (नक्षन्ते) प्राप्त होती हैं, (धेनवः) अपना दूध पिलानेवाली या अपने दूध से तृप्त करनेवाली (गावः) गौएँ (वत्सं न) जैसे बछड़े को प्राप्त होती हैं ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥
जैसे पौसे हुए पयोधरोंवाली नवप्रसूत गौएँ अपना दूध पिलाने के लिए शीघ्रता से बछड़े के पास जाती हैं, वैसे ही हमारी रस बहानेवाली, अर्थपूर्ण स्तुतिवाणियाँ प्रत्येक ज्ञानयज्ञ में, प्रत्येक कर्मयज्ञ में और प्रत्येक उपासनायज्ञ में परमात्मा के समीप पहुँचें ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ स्तोतारः परमात्मानमाहुः।
हे (गिर्वणः२) गीर्भिः स्तुतिवाग्भिः वन्यते सेव्यते याच्यते वा यः स गिर्वणाः, तथाविध हे इन्द्र परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (इमाः उ) एताः खलु अस्मदुच्चार्यमाणाः (गिरः) वेदवाचः स्तुतिवाचो वा (सुतेसुते) प्रतिज्ञानकर्मोपासनाव्यवहारम्३ (त्वा) त्वाम् (नक्षन्ते) प्राप्नुवन्ति। नक्षतिः गतिकर्मा व्याप्तिकर्मा च। निघं० २।१४, २।१८। (धेनवः) स्वपयसः पाययित्र्यः, दुग्धदानेन प्रीणयित्र्यो वा। धेनुः धयतेर्वा धिनोतेर्वा। निरु० ११।४३। (गावः) पयस्विन्यः (वत्सं न) यथा वत्सं नक्षन्ते प्राप्नुवन्ति ॥८॥४ अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥
यथा प्रस्नुवत्पयोधरा नवप्रसूता गावः पयः पाययितुं त्वरया वत्सं प्राप्नुवन्ति, तथैवास्मदीयाः प्रस्नुवद्रसा अर्थगर्भाः स्तुतिवाचः प्रतिज्ञानयज्ञं, प्रतिकर्मयज्ञं, प्रत्युपासनायज्ञं च परमात्मानमुपतिष्ठेरन् ॥८॥५