स꣡दा꣢ व꣣ इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्कृ꣢ष꣣दा꣢꣫ उपो꣣ नु꣡ स स꣢꣯प꣣र्य꣢न् । न꣢ दे꣣वो꣢ वृ꣣तः꣢꣫ शूर꣣ इ꣡न्द्रः꣢ ॥१९६
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सदा व इन्द्रश्चर्कृषदा उपो नु स सपर्यन् । न देवो वृतः शूर इन्द्रः ॥१९६
स꣡दा꣢꣯ । वः꣣ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣡र्कृ꣢꣯षत् । आ । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । नु꣢ । सः । स꣣पर्य꣢न् । न । दे꣣वः꣢ । वृ꣣तः꣢ । शू꣡रः꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥१९६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर और राजा के वरण का विषय है।
हे मनुष्यो ! (सदा) हमेशा (वः) तुम्हें, जो (इन्द्रः) परमेश्वर वा सुयोग्य जन (आ चर्कृषत्) अतिशय बार-बार कर्मों में प्रेरित करे, और (उप उ) समीप आकर (नु) शीघ्र ही (सः) वह (सपर्यन्) तुम्हारा सत्कार करे, प्रेम से तुम्हें शुभ कर्मों के लिए साधुवाद और प्रोत्साहन प्रदान करे, वैसा (देवः) दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाला (शूरः) वीर (इन्द्रः) परमेश्वर वा सुयोग्य मनुष्य (वृतः न) तुमने अभी तक नेता रूप में या राजा रूप में वरा नहीं है? बिना वरे पूर्वोक्त लाभ कैसे मिल सकते हैं? अतः अवश्य ही उसका वरण करो ॥३॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥३॥
जैसे वरण किया हुआ परमेश्वर मनुष्यों को पुरुषार्थ में प्रवृत्त करता है और शुभ कर्म करनेवालों को साधुवाद देकर उत्साहित करता है, वैसे ही प्रजाओं द्वारा चुना गया राजा प्रजाओं के लिए करे ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्य नृपतेश्च वरणविषयमाह।
हे जनाः ! (सदा) सर्वदा (वः) युष्मान् यः (इन्द्रः) परमेश्वरः सुयोग्यो जनो वा (आ१ चर्कृषत्२) अतिशयेन पुनः पुनः कर्मसु प्रेरयेत्। कृष विलेखने धातोर्यङ्लुगन्ताल्लेटि रूपम्। यद्वा डुकृञ् करणे धातोर्णिजन्ताद् यङ्लुगन्ताल्लेटि सिब्बहुलं लेटि। अ० ३।१।३४ इति सिबागमे रूपम्। (उप उ) उपेत्य च (नु) क्षिप्रम्। नु इति क्षिप्रनाम। निघं० २।१५। (सः) असौ (सपर्यन्) युष्मान् सत्कुर्वन्, प्रेम्णा युष्मभ्यं शुभकर्मार्थं साधुवादं प्रोत्साहनं च प्रयच्छन् भवेत्, तादृशं (देवः) दिव्यगुणकर्मस्वभावः (शूरः) वीरः (इन्द्रः) परमेश्वरः सुयोग्यो जनो वा (वृतः न३) युष्माभिर्नेतृत्वेन राजत्वेन वा स्वीकृतो न ? वरणाभावे कथं पूर्वोक्ता लाभाः स्युः ? अतोऽवश्यं स वरणीय इति भावः ॥३॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥३॥
यथा वृतः परमेश्वरो जनान् पुरुषार्थे प्रवर्तयति, शुभकर्मकारिणश्च साधुवादेन समुत्साहयति, तथैव प्रजाभिर्निर्वाचितो राजा प्रजाभ्यः कुर्यात् ॥३॥