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ओ꣢ज꣣स्त꣡द꣢स्य तित्विष उ꣣भे꣢꣫ यत्स꣣म꣡व꣢र्तयत् । इ꣢न्द्र꣣श्च꣡र्मे꣢व꣣ रो꣡द꣣सी ॥१८२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत् । इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥१८२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ओ꣡जः꣢꣯ । तत् । अ꣣स्य । तित्विषे । उभे꣡इ꣢ति । यत् । स꣣म꣡व꣢र्तयत् । स꣣म् । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣡र्म꣢꣯ । इ꣣व । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ ॥१८२॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 182 | (कौथोम) 2 » 2 » 4 » 8 | (रानायाणीय) 2 » 7 » 8


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा के ओज का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(तत्) वह (अस्य) इस इन्द्र परमेश्वर का (ओजः) ओज अर्थात् महान् बल और तेज (तित्विषे) प्रकाशित हो रहा है, (यत्) जो कि (इन्द्रः) वह शक्तिशाली परमेश्वर (उभे) दोनों (रोदसी) द्युलोक और भूलोक को (चर्म इव) मृगछाला के आसन के समान (समवर्तयत्) सृष्टिकाल में फैलाता है और प्रलयकाल में समेट लेता है ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥८॥

भावार्थभाषाः -

जैसे कोई योगी सन्ध्योपासना के लिए मृगछाला के आसन को बिछाता है और सन्ध्योपासना समाप्त करके उसे समेट लेता है, वैसे ही परमात्मा अपने ओज से सृष्ट्युत्पत्ति के समय सब जगत् को फैलाता है और प्रलय के समय समेट लेता है ॥८॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मन ओजो वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(तत् अस्य) इन्द्रस्य परमेश्वरस्य (ओजः) महद् बलं तेजो वा (तित्विषे) दीप्यते, प्रकाशते। त्विष दीप्तौ। ‘छन्दसि लुङ्लङ्लिटः।’ अ० ३।४।६ इति कालसामान्ये लिट्। (यत् इन्द्रः) असौ शक्तिशाली परमेश्वरः (उभे) द्वे अपि (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। रोदसी इति द्यावापृथिव्योर्नाम। निघं० ३।३०। (चर्म इव) मृगचर्मासनमिव (समवर्तयत्२) सृष्टिकाले प्रसारयति, प्रलयकाले संवेष्टयति च ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥८॥

भावार्थभाषाः -

यथा कश्चिद् योगी सन्ध्योपासनार्थं मृगचर्मासनमास्तृणाति, सन्ध्योपासनां समाप्य च तत् परिवेष्टयति, तथैव परमात्मा स्वौजसा सृष्ट्युत्पत्तिकाले सर्वं जगत् प्रसारयति, प्रलयकाले च संकोचयति ॥८॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।६।५, अथ० २०।१०७।२, साम० १६५३। २. समवर्तयत् संवेष्टयति—इति वि०। यथा कश्चित् किञ्चित् चर्म कदाचिद् विस्तारयति कदाचित् संकोचयति, एवं (रोदसी) तदधीने अभूताम्—इति सा०।