औ꣣र्वभृगुव꣡च्छुचि꣢꣯मप्नवान꣣व꣡दा हु꣢꣯वे । अ꣣ग्नि꣡ꣳ स꣢मु꣣द्र꣡वा꣢ससम् ॥१८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे । अग्निꣳ समुद्रवाससम् ॥१८॥
औ꣣र्वभृगुव꣢त् । औ꣣र्व । भृगुव꣢त् । शु꣡चि꣢꣯म् । अ꣣प्नवानव꣢त् । आ । हु꣣वे । अग्नि꣢म् स꣣मुद्र꣡वा꣢ससम् । स꣣मुद्र꣢ । वा꣣ससम् ॥१८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
कैसे परमात्मा का मैं आह्वान करता हूँ, यह कहते हैं।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं (और्वभृगुवत्) पार्थिव पदार्थों को तपानेवाले सूर्य के समान, और (अप्नवानवत्) क्रियासेवी वायु के समान (शुचिम्) पवित्र व पवित्रताकारक, और (समुद्रवाससम्) हृदयाकाश में व ब्रह्माण्डाकाश में निवास करनेवाले (अग्निम्) ज्योतिष्मान् तथा ज्योतिष्प्रद परमात्मा को (आहुवे) पुकारता हूँ ॥ द्वितीय—विद्युत् के पक्ष में। बिजली के प्रयोग के विषय में कहते हैं। मैं (और्वभृगुवत्) जैसे सूर्य को अर्थात् सूर्य के ताप को यन्त्रों आदि में प्रयुक्त करता हूँ, और (अप्नवानवत्) जैसे पाकादि कर्मों का सेवन करनेवाले पार्थिव अग्नि को यन्त्रों आदि में प्रयुक्त करता हूँ, वैसे ही (शुचिम्) प्रदीप्त, (समुद्रवाससम्) अन्तरिक्षनिवासी (अग्निम्) वैद्युत अग्नि को (आहुवे) प्रकाश के लिए तथा यान आदि में प्रयुक्त करने के लिए अपने समीप लाता हूँ ॥८॥ इस मन्त्र में उपमा और श्लेष अलङ्कार हैं ॥८॥
जैसे सूर्य और वायु पवित्र, पवित्रताकारक और सबके जीवनाधार हैं, वैसे ही परमात्मा भी है। जैसे सूर्य और वायु आकाश में निवास करते हैं, वैसे ही परमात्मा हृदयाकाश में और विश्वब्रह्माण्ड के आकाश में निवास करता है। ऐसे परमात्मा का सबको साक्षात्कार करना चाहिए। साथ ही सूर्याग्नि, पार्थिवाग्नि तथा वैद्युत अग्नि के द्वारा यान आदि चलाने चाहिएँ ॥८॥ जैसे और्व ऋषि, भृगु ऋषि और अप्नवान ऋषि शुचि अग्नि को बुलाते हैं, वैसे ही मैं बुला रहा हूँ, यह विवरणकार की व्याख्या है। भरतस्वामी का भी यही अभिप्राय है। सायण ने और्व और भृगु अलग-अलग नाम न मानकर एक और्वभृगु नाम माना है। यह सब व्याख्यान असंगत है, क्योंकि सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत वेदों में पश्चाद्वर्ती ऋषि आदिकों का इतिहास नहीं हो सकता ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशं परमात्मानमहमाह्वयामीत्याह।
प्रथमः—परमात्मपरः। अहम् (और्वभृगुवत्) उर्व्या पृथिव्यां भवाः पदार्था और्वाः, तान् भृज्जति भर्जति वा स और्वभृगुः सूर्यः, तमिव, (अप्नवानवत्) अप्नांसि कर्माणि वन्यन्ते सेव्यन्ते येन सोऽप्नवानः गमनशीलो वायुः, तमिव च। अप्न इति कर्मनाम। निघं० २।१। वन सम्भक्तौ। (शुचिम्) पवित्रं पवित्रतादायकं च, शुचिर् पूतीभावे। (समुद्रवाससम्) हृदयाकाशे ब्रह्माण्डकाशे वा निवसन्तम्। समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। वस निवासे। (अग्निम्) ज्योतिष्मन्तं ज्योतिष्प्रदं च परमात्मानम्। (आहुवे) आह्वयामि। ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च। बहुलं छन्दसि। अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणे रूपम् ॥ अथ द्वितीयः—विद्युत्परः। विद्युत्प्रयोगविषयमाह। अहम् (और्भृगुवत्) और्वभृगुः सूर्यः तमिव, यथाहं सूर्याग्निमाह्वयामि, सूर्यतापं यन्त्रेषु संगृह्णामि तथेत्यर्थः। (अप्नवानवत्) अप्नांसि) पाकादिकर्माणि वन्यन्ते सेव्यन्ते येन सोऽप्नवानः पार्थिवाग्निः, तमिव, यथाहं पार्थिवाग्निमाह्वयामि, यन्त्रेषु संगृह्णामि तथेत्यर्थः, (शुचिम्) दीप्तम्। शुच दीप्तौ। (समुद्रवाससम्२) अन्तरिक्षनिवासिनम् (अग्निम्) वैद्युताग्निम् (आहुवे) आह्वयामि, प्रकाशं प्राप्तुं, यानादिषु च प्रयोक्तुं स्वसकाशम् आनयामि ॥८॥ अत्रोपमा श्लेषश्चालङ्कारः ॥८॥
यथा सूर्यो वायुश्च शुचिः, शुचिकारकः, सर्वेषां जीवनाधारश्च, तथैव परमात्मापि। यथा सूर्यो वायुश्चाकाशे निवसति, तथैव परमात्मा हृदयाकाशे विश्वब्रह्माण्डाकाशे च। तादृशः परमात्मा सर्वैः साक्षात्करणीयः, किं च सूर्याग्निना वैद्युताग्निना च यानादीनि चालनीयानि ॥८॥ यथा और्वः ऋषिः यथा च भृगुर्ऋषिः यथा च अप्नवान आह्वयति तद्वदहमपि शुचिम् आहुवे आह्वयामीति वि०। तदेव भरतस्वामिनोऽभिमतम्। सायणमते तु और्वभृगुः इत्येकं नाम। तत्सर्वमसंगतं, सृष्ट्यादौ प्रादुर्भूतेषु वेदेषु पश्चाद्वर्तिनाम् ऋष्यादीनामितिहासस्यासंभवात् ॥