द्वि꣣ता꣡ यो वृ꣢꣯त्र꣣ह꣡न्त꣢मो वि꣣द꣡ इन्द्रः꣢꣯ श꣣त꣡क्र꣢तुः । उ꣡प꣢ नो꣣ ह꣡रि꣢भिः सु꣣त꣢म् ॥१७९१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)द्विता यो वृत्रहन्तमो विद इन्द्रः शतक्रतुः । उप नो हरिभिः सुतम् ॥१७९१॥
द्वि꣣ता꣢ । यः । वृ꣣त्रह꣡न्त꣢मः । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯मः । वि꣣दे꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । श꣣त꣡क्र꣢तुः । श꣣त꣢ । क्र꣣तुः । उ꣡प꣢꣯ । नः꣣ । ह꣡रि꣢꣯भिः । सु꣣त꣢म् ॥१७९१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर जीवात्मा का ही विषय वर्णित है।
(यः इन्द्रः) जो जीवात्मा (वृत्रहन्तमः) काम, क्रोध आदि शत्रुओं का तथा व्याधि, स्त्यान आदि योग-विघ्नों का अतिशय विनाशक (शतक्रतुः) और बहुत से यज्ञ करनेवाला, इस प्रकार (द्विता) दो रूपों में (विदे) जाना जाता है, वह (नः) हमारे (हरिभिः) ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से (सुतम्) उत्पन्न किये गये ज्ञान और कर्म को (उप) समीपता से प्राप्त करे ॥२॥
जीवात्मा के दो प्रकार के कर्म हैं, एक शत्रुओं का वध और दूसरा योग आदि यज्ञ की पूर्ति। उन्हें करने के लिए वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का उपयोग करके उन्नति के शिखर पर चढ़े ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्जीवात्मविषय एवोच्यते।
(यः इन्द्रः) यो जीवात्मा (वृत्रहन्तमः) अतिशयेन कामक्रोधादीनां शत्रूणां व्याधिस्त्यानादीनां योगविघ्नानां वा हन्ता, (शतक्रतुः) बहुयज्ञश्च, इत्येवम् (द्विता) द्विधा (विदे) ज्ञायते, सः (नः) अस्माकम् (हरिभिः) ज्ञानेन्द्रियैः कर्मेन्द्रियैश्च (सुतम्) उत्पादितं ज्ञानं कर्म च (उप) उप प्राप्नोतु ॥२॥
जीवात्मनः खलु द्विविधं कर्म, शत्रुवधः योगादियज्ञपूर्तिश्च। तत्करणाय स ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियाण्युपयुज्योन्नतिशिखरमारोहतु ॥२॥