अ꣡बो꣢धि꣣ हो꣡ता꣢ य꣣ज꣡था꣢य दे꣣वा꣢नू꣣र्ध्वो꣢ अ꣣ग्निः꣢ सु꣣म꣡नाः꣢ प्रा꣣त꣡र꣢स्थात् । स꣡मि꣢द्धस्य꣣ रु꣡श꣢ददर्शि꣣ पा꣡जो꣢ महा꣢न्दे꣣व꣡स्तम꣢꣯सो꣣ नि꣡र꣢मोचि ॥१७४७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अबोधि होता यजथाय देवानूर्ध्वो अग्निः सुमनाः प्रातरस्थात् । समिद्धस्य रुशददर्शि पाजो महान्देवस्तमसो निरमोचि ॥१७४७॥
अ꣡बो꣢꣯धि । हो꣡ता꣢꣯ । य꣣ज꣡था꣢य । दे꣣वा꣢न् । ऊ꣣र्ध्वः꣢ । अ꣣ग्निः꣢ । सु꣣म꣡नाः꣢ । सु꣣ । म꣡नाः꣢꣯ । प्रा꣣तः꣢ । अ꣣स्थात् । स꣡मि꣢꣯द्धस्य । सम् । इ꣣द्धस्य । रु꣡श꣢꣯त् । अ꣡दर्शि । पा꣡जः꣢꣯ । म꣣हा꣢न् । दे꣣वः꣢ । त꣡म꣢꣯सः । निः । अ꣣मोचि ॥१७४७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय को कहते हैं।
(होता) होम के साधन अग्नि ने (यजथाय) यज्ञ करने के लिए (देवान्) विद्वान् यजमानों को (अबोधि) जगा दिया है। (प्रातः) प्रभात में (सुमनाः) मनों को शुभ बनानेवाला (अग्निः) यज्ञाग्नि (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्वोन्मुख (अस्थात्) स्थित हो गयी है। (समिद्धस्य) प्रज्वलित हुए इस यज्ञाग्नि का (रुशत्) चमकता हुआ (पाजः) रूप (अदर्शि) दिखायी दे रहा है। (महान्) महान् (देवः) प्रकाशक अग्नि ने (तमसः) अन्धकार से (निरमोचि) छुड़ा दिया है ॥२॥ इस मन्त्र में भी स्वभावोक्ति अलङ्कार है ॥२॥
जैसे प्रज्वलित, ऊँची ज्वालाओंवाली, चमकती हुई यज्ञाग्नि अँधेरे से छुड़ाती है, वैसे ही देदीप्यमान ऊर्ध्वयात्री, तेजस्वी आत्मा मन-बुद्धि आदि को तमोगुण से छुड़ाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(होता) होमसाधनः अग्निः (यजथाय) यजनाय (देवान्) विदुषो यजमानान् (अबोधि) प्रबोधयति। (प्रातः) प्रभाते (सुमनाः) शोभनानि मनांसि यस्मात् तादृशः (अग्निः) यज्ञाग्निः (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्वोन्मुखः (अस्थात्) तिष्ठति। (समिद्धस्य) प्रदीप्तस्य अस्य यज्ञाग्नेः (रुशत्) रोचमानम् (पाजः) रूपम् (अदर्शि) दृश्यते। (महान्) महिमोपेतः (देवः) प्रकाशकः एषोऽग्निः, (तमसः) अन्धकारात् (निरमोचि) निर्मोचितवानस्ति ॥२॥२ अत्रापि स्वभावोक्तिरलङ्कारः ॥२॥
यथा प्रज्वलित ऊर्ध्वज्वालो रोचमानो यज्ञाग्निस्तमसो निर्मोचयति तथैव देदीप्यमान ऊर्ध्वयात्रो रोचिष्णुरात्मा मनोबुद्ध्यादीन् तमोगुणाद् निर्मोचयति ॥२॥