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देवता: अश्विनौ ऋषि: प्रस्कण्वः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

या꣢ द꣣स्रा꣡ सिन्धु꣢꣯मातरा मनो꣣त꣡रा꣢ रयी꣣णा꣢म् । धि꣣या꣢ दे꣣वा꣡ व꣢सु꣣वि꣡दा꣢ ॥१७२९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ॥१७२९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

या꣢ । द꣣स्रा꣢ । सि꣡न्धु꣢꣯मातरा । सि꣡न्धु꣢꣯ । मा꣣तरा । मनोत꣡रा꣢ । र꣣यीणा꣢म् । धि꣣या꣢ । दे꣣वा꣢ । व꣣सुवि꣡दा꣢ । वसु꣣ । वि꣡दा꣢꣯ ॥१७२९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1729 | (कौथोम) 8 » 3 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 19 » 2 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में मन और आत्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(या) जो मन-आत्मा रूप अश्वीयुगल (दस्रा) दोषों को नष्ट करनेवाले, (सिन्धुमातरा) आनन्दस्राविणी जगदम्बा जिनका माता के समान पालन करनेवाली है, ऐसे (रयीणाम्) सत्य, अहिंसा आदि वा स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य आदि ऐश्वर्यों को (मनोतरा) अतिशय दीप्त करनेवाले, (देवा) बल के दाता और (धिया) प्रज्ञा तथा कर्म से (वसुविदा) योगसिद्धिरूप ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले हैं, उनकी मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ। [यहाँ ‘स्तुषे’ पद पूर्व मन्त्र से लिया गया है] ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मन और आत्मा को साधने से दोषों का क्षय, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, सत्य-अहिंसा आदि ऐश्वर्य और योगसिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ मनआत्मनोर्गुणकर्माणि वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(या) यौ अश्विनौ मनआत्मानौ (दस्रा) दोषाणामुपक्षेतारौ, (सिन्धुमातरा) सिन्धुः आनन्दरसस्य स्यन्दयित्री जगदम्बा माता मातृवत् पालयित्री ययोः तौ, (रयीणाम्) सत्याहिंसादीनां स्वास्थ्यदीर्घायुष्यादीनां चैश्वर्याणाम् (मनोतरा) अतिशयेन दीपयितारौ। [मन्यते दीप्तिकर्मा। निरु० १०।२९।] (देवा) देवौ बलस्य दातारौ, (धिया) प्रज्ञया कर्मणा च (वसुविदा) वसुविदौ योगसिद्धिरूपस्यैश्वर्यस्य लम्भकौ स्तः, तौ अहं ‘स्तुषे’ इति पूर्वेण सम्बन्धः। [अत्र सर्वत्र ‘सुपां सुलुक्०’। अ० ७।१।३९ इति प्रथमाद्विवचनस्याकारादेशः] ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

मनआत्मनोः साधनेन दोषक्षयः स्वास्थ्यं दीर्घायुष्यं बलं सत्याहिंसाद्यैश्वर्याणि योगसिद्धयश्च प्राप्यन्ते ॥२॥