ग꣣म्भीरा꣡ꣳ उ꣢द꣣धी꣡ꣳरि꣢व꣣ क्र꣡तुं꣢ पुष्यसि꣣ गा꣡ इ꣢व । प्र꣡ सु꣢गो꣣पा꣡ यव꣢꣯सं धे꣣न꣡वो꣢ यथा ह्र꣣दं꣢ कु꣣ल्या꣡ इ꣢वाशत ॥१७२०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)गम्भीराꣳ उदधीꣳरिव क्रतुं पुष्यसि गा इव । प्र सुगोपा यवसं धेनवो यथा ह्रदं कुल्या इवाशत ॥१७२०॥
ग꣣म्भीरा꣢न् । उ꣣दधी꣢न् । उ꣣द । धी꣢न् । इ꣣व । क्र꣡तु꣢꣯म् । पु꣣ष्यसि । गाः꣢ । इ꣣व । प्र꣢ । सु꣣गोपाः꣢ । सु꣣ । गोपाः꣢ । य꣡व꣢꣯सम् । धे꣣न꣡वः꣢ । य꣣था । ह्रद꣢म् । कु꣣ल्याः꣢ । इ꣣व । आशत ॥१७२०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में उपमाओं द्वारा परमात्मा का कर्म और जीवात्मा की उपलब्धि वर्णित है।
हे पवमान सोम ! हे पवित्रकर्ता जगदीश्वर ! (गम्भीरान्) अगाध (उदधीन् इव) समुद्रों को जैसे आप पुष्ट करते हो और (गाः इव) जैसे पृथिवी आदि लोकों को वा धेनुओं को आप पुष्ट करते हो, वैसे ही (क्रतुम्) कर्मकर्ता जीवात्मा को (पुष्यसि) पुष्ट करते हो। हे जीवात्मन् ! (यवसम्) घास-चारे को (धेनवः यथा) जैसे गायें और (हृदम्) सरोवर को (कुल्याः इव) जैसे शुद्ध जल की नालियाँ प्राप्त होती हैं, वैसे ही (सुगोपाः) सुरक्षा करनेवाले आनन्द-रस, तुझे (प्र आशत) प्रकृष्ट रूप से प्राप्त होते हैं ॥३॥ यहाँ चार उपमाएँ हैं, अतः उपमालङ्कार है ॥३॥
जगदीश्वर जैसे जलों से समुद्रों को, दूध से धेनुओं को और विविध ऐश्वर्यों से पृथिवी आदि लोकों को परिपूर्ण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा को सद्गुणों से परिपूर्ण करते हैं। गौएँ जैसे घास के पास पहुँचती हैं और छोटी-छोटी नहरें जैसी महान् जलाशय को भरने के लिए उनमें पहुँचती हैं, वैसे ही जगदीश्वर के पास से ब्रह्मानन्द-रस जीवात्मा को प्राप्त होते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपमामुखेन परमात्मनः कर्म जीवात्मन उपलब्धिं च वर्णयति।
हे पवमान सोम ! हे पावक जगदीश्वर ! (गम्भीरान्) अगाधान् (उदधीन् इव) समुद्रान् यथा त्वं पुष्यसि, (गाः इव) पृथिव्यादिलोकान् यथा त्वं पुष्यसि, तथैव (क्रतुम्) कर्मकर्तारं जीवात्मानम् (पुष्यसि) पुष्णासि। हे जीवात्मन् ! (यवसम्) घासम् (धेनवः यथा) गावः यथा, अपि च (ह्रदम्) सरोवरम् (कुल्याः इव) शुद्धजलस्य प्रणालिकाः यथा अश्नुवते, तथैव (सुगोपाः) सुरक्षकाः आनन्दरसाः त्वाम् (प्र आशत) प्रकर्षेण अश्नुवते ॥३॥२ अत्र चतस्रः उपमाः तेनोपमालङ्कारः ॥३॥
जगदीश्वरो यथा जलैरुदधीन् पयोभिधेनूर्विविधैरैश्वर्यैश्च पृथिव्यादिलोकान् परिपूरयति तथैव जीवात्मानं सद्गुणैः परिपूरयति। गावो यथा घासं लघुकुल्याश्च महाजलाशयं प्राप्नुवन्ति तथा जगदीश्वराद् ब्रह्मानन्दरसा जीवात्मानं प्राप्नुवन्ति ॥३॥