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देवता: इन्द्रः ऋषि: विश्वामित्रो गाथिनः छन्द: बृहती स्वर: मध्यमः काण्ड:

वृ꣣त्रखादो꣡ व꣢लꣳ रु꣣जः꣢ पु꣣रां꣢ द꣣र्मो꣢ अ꣣पा꣢म꣣जः꣢ । स्था꣢ता꣣ र꣡थ꣢स्य꣣ ह꣡र्यो꣢रभिस्व꣣र꣡ इन्द्रो꣢꣯ दृ꣣ढा꣡ चि꣢दारु꣣जः꣢ ॥१७१९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

वृत्रखादो वलꣳ रुजः पुरां दर्मो अपामजः । स्थाता रथस्य हर्योरभिस्वर इन्द्रो दृढा चिदारुजः ॥१७१९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृ꣣त्रखादः꣢ । वृ꣣त्र । खादः꣢ । व꣣लꣳरुजः꣢ । व꣣लम् । रुजः꣢ । पु꣣रा꣢म् । द꣣र्मः꣢ । अ꣣पा꣢म् । अ꣣जः꣢ । स्था꣡ता꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯स्य । ह꣡र्योः꣢꣯ । अ꣣भिस्वरे꣢ । अ꣣भि । स्वरे꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । दृ꣣ढा꣢ । चि꣣त् । आरुजः꣢ । आ꣣ । रुजः꣢ ॥१७१९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1719 | (कौथोम) 8 » 3 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 19 » 1 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब जीवात्मा का कर्तव्य बताते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः) मनुष्य का आत्मा (वृत्रखादः) पापों का भक्षक, (वलंरुजः) धर्म पर पर्दा डालनेवाले काम, क्रोध आदि को चकनाचूर करनेवाला, (पुरां दर्मः) शत्रु की नगरियों को विदीर्ण करनेवाला, (अपाम् अजः) कर्मों को गति देनेवाला, (हर्योः) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों के (रथस्य) शरीररूप रथ का (स्थाता) अधिष्ठाता और (अभिस्वरे) देवासुरसङ्ग्राम में (दृढा चित्) दृढ से दृढ विघ्न आदि को (आ रुजः) चकनाचूर कर देनेवाला होवे ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को चाहिए कि वे अपने आत्मा की शक्ति को समझ कर, उसका प्रयोग करके, सब बाधाओं का उन्मूलन करके अभ्युदय और निःश्रेयसरूप लक्ष्य को प्राप्त करें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ जीवात्मनः कर्त्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः) मनुष्यस्यात्मा (वृत्रखादः) पापभक्षकः, (वलंरुजः) धर्माच्छादकस्य कामक्रोधादेः भङ्क्ता, (पुरां दर्मः) शत्रुनगरीणां विदारकः, (अपाम् अजः) कर्मणां गतिप्रदाता, (हर्योः) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपयोः अश्वयोः (रथस्य) देहरथस्य (स्थाता) अधिष्ठाता, (अभिस्वरे) देवासुरसंग्रामे च (दृढा चित्) दृढान्यपि विघ्नादीनि (आरुजः) आमर्दयिता भवेत् ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

मनुष्याः स्वात्मशक्तिं विभाव्य तां प्रयुज्य सर्वा बाधा उद्धूयाभ्युदयनिःश्रेयसरूपं लक्ष्यं प्राप्नुवन्तु ॥२॥