य꣢ इ꣣दं꣡ प्र꣢तिपप्र꣣थे꣢ य꣣ज्ञ꣢स्य꣣꣬ स्व꣢꣯रुत्ति꣣र꣢न् । ऋ꣣तू꣡नुत्सृ꣢꣯जते व꣣शी꣢ ॥१७०९
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)य इदं प्रतिपप्रथे यज्ञस्य स्वरुत्तिरन् । ऋतूनुत्सृजते वशी ॥१७०९
यः꣢ । इ꣡द꣢म् । प्र꣣तिपप्रथे꣢ । प्र꣣ति । पप्रथे꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स्वः꣡ । उ꣣त्तिर꣢न् । उ꣣त् । तिर꣢न् । ऋ꣣तू꣢न् । उत् । सृ꣣जते । वशी꣢ ॥१७०९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जगदीश्वर का कर्तृत्व वर्णित है।
(यः) जो जगदीश्वर (इदम्) इस ब्रह्माण्ड को (प्रतिपप्रथे) फैलाता है और (यज्ञस्य) प्रकाश प्रदाता सूर्य के (स्वः) प्रकाश को (उत्तिरन्) बिखेरता हुआ, (वशी) जगत् की व्यवस्था को चाहता हुआ (ऋतून) वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा आदि ऋतुओं को (उत्सृजते) रचता है, उस जगदीश्वर से हम [‘अजस्रं घर्मम् ईमहे’] अक्षय प्रताप वा तेज माँगते हैं। [यहाँ ‘अजस्रं घर्मम् ईमहे’ यह अंश वाक्यपूर्ति के लिए पूर्व मन्त्र से लाया गया है] ॥२॥
अहो ! जगत्पति की यह कैसी अद्भुत महिमा है कि वह सूर्य को उत्पन्न करके उसके द्वारा सारे सौरमण्डल को भली-भाँति सञ्चालित कर रहा है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरस्य कर्तृत्वमाह।
(यः) अग्निर्जगदीश्वरः (इदम्) एतद् ब्रह्माण्डम् (प्रतिपप्रथे) विस्तृणाति, अपि च (यज्ञस्य) प्रकाशप्रदातुः आदित्यस्य। [स यः स यज्ञोऽसौ स आदित्यः। श० १४।१।१।६।] (स्वः) प्रकाशम् (उत्तिरन्) विकिरन् (वशी) जगद्व्यवस्थां कामयमानः (ऋतून्) वसन्तग्रीष्मवर्षादीन् (उत्सृजते) निर्मिमीते, तं जगदीश्वरं वयम् ‘अजस्रं घर्मम् ईमहे’ इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते ॥२॥
अहो ! कीदृशोऽयं महिमा जगत्पतेर्यदसौ सूर्यमुत्पाद्य सर्वं सौरमण्डलं तद्द्वारेण सम्यक् सञ्चालयति ॥२॥