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देवता: अग्निः ऋषि: भरद्वाजो बार्हस्पत्यः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

उ꣡प꣢ त्वा र꣣ण्व꣡सं꣢दृशं꣣ प्र꣡य꣢स्वन्तः सहस्कृत । अ꣡ग्ने꣢ ससृ꣣ज्म꣢हे꣣ गि꣡रः꣢ ॥१७०५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उप त्वा रण्वसंदृशं प्रयस्वन्तः सहस्कृत । अग्ने ससृज्महे गिरः ॥१७०५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । रण्व꣡स꣢न्दृशम् । र꣣ण्व꣢ । स꣣न्दृशम् । प्र꣡य꣢꣯स्वन्तः । स꣣हस्कृत । सहः । कृत । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣सृज्म꣡हे꣢ । गि꣡रः꣢꣯ ॥१७०५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1705 | (कौथोम) 8 » 2 » 18 » 1 | (रानायाणीय) 18 » 4 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में अग्नि नाम से परमात्मा को सम्बोधन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सहस्कृत) आत्मबल से हृदय में प्रकट किये गये (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्नवान् हम (रण्वसन्दृशम्) रमणीय दर्शनवाले (त्वा) आपके प्रति (गिरः) स्तुति-वाणियों को (उप ससृज्महे) उच्चारण करते हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा की स्तुति के साथ मनुष्यों को प्रयत्न भी करना चाहिए, तभी अभीष्ट कामनाएँ पूर्ण होती हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादावग्निनाम्ना परमात्मानं सम्बोधयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सहस्कृत) सहसा आत्मबलेन हृदये प्रकटीकृत (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्नवन्तः वयम् (रण्वसन्दृशम्) रमणीयदर्शनम् (त्वा) त्वां प्रति (गिरः) स्तुतिवाचः (उपसृज्महे) उपसृजामः ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

परमात्मस्तुत्या सार्धं मनुष्यैः प्रयत्नोऽप्यनुष्ठेयस्तदैवाभीष्टकामनाः पूर्यन्ते ॥१॥