उ꣡प꣢ त्वा र꣣ण्व꣡सं꣢दृशं꣣ प्र꣡य꣢स्वन्तः सहस्कृत । अ꣡ग्ने꣢ ससृ꣣ज्म꣢हे꣣ गि꣡रः꣢ ॥१७०५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उप त्वा रण्वसंदृशं प्रयस्वन्तः सहस्कृत । अग्ने ससृज्महे गिरः ॥१७०५॥
उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । रण्व꣡स꣢न्दृशम् । र꣣ण्व꣢ । स꣣न्दृशम् । प्र꣡य꣢꣯स्वन्तः । स꣣हस्कृत । सहः । कृत । अ꣡ग्ने꣢꣯ । स꣣सृज्म꣡हे꣢ । गि꣡रः꣢꣯ ॥१७०५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में अग्नि नाम से परमात्मा को सम्बोधन करते हैं।
हे (सहस्कृत) आत्मबल से हृदय में प्रकट किये गये (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्नवान् हम (रण्वसन्दृशम्) रमणीय दर्शनवाले (त्वा) आपके प्रति (गिरः) स्तुति-वाणियों को (उप ससृज्महे) उच्चारण करते हैं ॥१॥
परमात्मा की स्तुति के साथ मनुष्यों को प्रयत्न भी करना चाहिए, तभी अभीष्ट कामनाएँ पूर्ण होती हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादावग्निनाम्ना परमात्मानं सम्बोधयति।
हे (सहस्कृत) सहसा आत्मबलेन हृदये प्रकटीकृत (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (प्रयस्वन्तः) प्रयत्नवन्तः वयम् (रण्वसन्दृशम्) रमणीयदर्शनम् (त्वा) त्वां प्रति (गिरः) स्तुतिवाचः (उपसृज्महे) उपसृजामः ॥१॥२
परमात्मस्तुत्या सार्धं मनुष्यैः प्रयत्नोऽप्यनुष्ठेयस्तदैवाभीष्टकामनाः पूर्यन्ते ॥१॥