तो꣣शा꣡ वृ꣢त्र꣣ह꣡णा꣢ हुवे स꣣जि꣢त्वा꣣ना꣡प꣢राजिता । इ꣣न्द्राग्नी꣡ वा꣢ज꣣सा꣡त꣢मा ॥१७०२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तोशा वृत्रहणा हुवे सजित्वानापराजिता । इन्द्राग्नी वाजसातमा ॥१७०२॥
तो꣣शा꣢ । वृ꣣त्रह꣡णा꣢ । वृ꣣त्र । ह꣡ना꣢꣯ । हु꣣वे । सजि꣡त्वा꣢ना । स꣣ । जि꣡त्वा꣢꣯ना । अ꣡प꣢꣯राजिता । अ । प꣢राजिता । इन्द्राग्नी꣢ । इ꣣न्द्र । अग्नी꣡इति꣢ । वा꣣जसा꣡त꣢मा ॥१७०२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में इन्द्र-अग्नि नाम से ब्रह्म-क्षत्र की प्रशंसा करते हैं।
(तोशा) तेजस्वी वा बढ़ानेवाले, (वृत्रहणा) पाप को नष्ट करनेवाले, (सजित्वाना) साथ मिलकर विजय लाभ करनेवाले, (अपराजिता) पराजित न होनेवाले, (वाजसातमा) बल के अतिशय दाता (इन्द्राग्नी) ब्रह्म और क्षत्र को, मैं (हुवे) बुलाता हूँ ॥१॥
समष्टि रूप से राष्ट्र में और व्यष्टि रूप से व्यक्ति में विद्यमान, प्रवृद्ध, ब्रह्मबल और क्षात्रबल से राष्ट्र तथा मनुष्य बाह्य और आन्तरिक शत्रुओं को पराजित करके सदा विजयी होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ इन्द्राग्निनाम्ना ब्रह्मक्षत्रे प्रशंसति।
(तोशा२) तोशौ तेजस्विनौ वर्द्धकौ वा, (वृत्रहणा) पापहन्तारौ, (सजित्वाना) सह विजेतारौ, (अपराजिता) अपराजितौ, (वाजसातमा) बलस्य अतिशयेन दातारौ (इन्द्राग्नी) ब्रह्मक्षत्रे। [ब्रह्मक्षत्रे वा इन्द्राग्नी। कौ० ब्रा० १२।८।] अहम् (हुवे) आह्वयामि। [तोशा, वृत्रहणा, सजित्वाना, अपराजिता, वाजसातमा सर्वत्र ‘सुपां सुलुक्०।’ अ० ७।१।३९ इति द्वितीयाद्विवचनस्य आकारादेशः] ॥१॥३
समष्टिरूपेण राष्ट्रे व्यष्टिरूपेण च व्यक्तौ विद्यमानेन प्रवृद्धनेन ब्रह्मबलेन क्षात्रबलेन च राष्ट्रं मानवश्च बाह्यानान्तरांश्च शत्रून् पराजित्य सदा विजयं लभते ॥१॥