क꣡ ईं꣢ वेद सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ पि꣡ब꣢न्तं꣣ कद्वयो꣢꣯ दधे । अ꣣यं यः पुरो꣢꣯ विभि꣣नत्त्योज꣢꣯सा मन्दा꣣नः꣢ शि꣣प्र्य꣡न्ध꣢सः ॥१६९६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे । अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥१६९६॥
कः꣢ । ई꣣म् । वेद । सुते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯न्तम् । कत् । व꣡यः꣢꣯ । द꣣धे । अय꣢म् । यः । पु꣡रः꣢꣯ । वि꣣भि꣡न꣢त्ति । वि꣣ । भि꣡नत्ति꣢ । ओ꣡ज꣢꣯सा । म꣣न्दानः꣢ । शि꣣प्री꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः ॥१६९६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २९७ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ प्रश्नोत्तर-शैली से उपास्य-उपासक का विषय वर्णित करते हैं।
(सुते) उपासक के भक्ति-रस के अभिषुत होने पर (सचा) एक साथ (ईम्) इस भक्ति-रस को (पिबन्तम्) पीते हुए इन्द्र परमात्मा को (कः वेद) कौन जानता है? (कत्) कब, वह उपासक के अन्तरात्मा में (वयः) आनन्द-रस को (दधे) रख देता है, यह भी (कः वेद) कौन जानता है? आगे इसका उत्तर दिया गया है—(अयं यः) यह जो (शिप्री) विस्तीर्ण बलवाला उपासक (अन्धसः) आनन्द-रस से (मन्दानः) उत्साह प्राप्त करता हुआ (ओजसा) आत्म-बल से (पुर) आन्तरिक असुरों की किलेबन्दियों को (विभिनत्ति) तोड़-फोड़ देता है, वही जानता है ॥१॥
कैसे परमात्मा भक्त के भक्तिरस में डूब जाता है और कैसे उपासक भगवान् के ब्रह्मानन्द-रस में डूबता है, इस बात को आत्मसमर्पक भगवद्-भक्त ही जानता है, दूसरा कोई, जिसने भक्त्ति का प्रसाद अनुभव नहीं किया, इस बात को नहीं जान सकता ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २९७ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र प्रश्नोत्तरशैल्या उपास्योपासकविषयमाह।
(सुते) उपासकस्य भक्तिरसेऽभिषुते सति (सचा) युगपत्(ईम्) एवं भक्तिरसम् (पिबन्तम्) आस्वादयन्तम् इन्द्रं परमात्मानम् (कः वेद) को जानाति ? (कत्) कदा, असौ उपासकस्यान्तरात्मनि (वयः) आनन्दरसम् (दधे) निदधाति इत्यपि (कः वेद) को जानातीति प्रश्नः। तदुत्तरमाह—(अयं यः) य एष (शिप्री) सृप्री, विस्तीर्णबलः उपासकः (अन्धसः) आनन्दरसात् (मन्दानः) उत्साहं प्राप्नुवन् (ओजसा) आत्मबलेन (पुरः) आभ्यन्तराणामसुराणां दुर्गपङ्क्तीः(विभिनत्ति) विदारयति, स एव जानातीति ॥१॥
कथं परमात्मा भक्तस्य भक्तिरसे निमग्नो जायते कथं चोपासको भगवतो ब्रह्मानन्दरसे इति कृतात्मसमर्पणो भगवद्भक्त एव जानाति, नान्यः कश्चिदननुभूतभक्तिप्रसादो जनः ॥१॥