इ꣡न्द्र꣢ स्थातर्हरीणां꣣ न꣡ कि꣢ष्टे पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिम् । उ꣡दा꣢नꣳश꣣ श꣡व꣢सा꣣ न꣢ भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्र स्थातर्हरीणां न किष्टे पूर्व्यस्तुतिम् । उदानꣳश शवसा न भन्दना ॥१६८५॥
इ꣡न्द्र꣢꣯ । स्था꣣तः । हरीणाम् । न꣢ । किः꣣ । ते । पूर्व्य꣡स्तु꣢तिम् । पू꣣र्व्य꣢ । स्तु꣣तिम् । उ꣢त् । आ꣣नꣳश । श꣡व꣢꣯सा । न । भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर की महिमा का वर्णन करते हैं।
(हरीणाम्) एक-दूसरे का आकर्षण करनेवाले सूर्य, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र आदि लोकों के और विषयों को ग्रहण करनेवाली देह-स्थित इन्द्रियों के (स्थातः) अधिष्ठाता, हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (ते)आपकी (पूर्व्यस्तुतिम्) श्रेष्ठ स्तुति को (नः किः) न कोई (शवसा) बल से, (न भन्दना) न कल्याण से (उदानंश) लाँघ पाता है ॥२॥
जगदीश्वर से अधिक बलवान् और बल-प्रदाता, कल्याणवान् और कल्याणकर्ता संसार भर में कोई नहीं है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्य महिमानमाचष्टे।
(हरीणाम्) परस्पराकर्षणवतां सूर्यग्रहोपग्रहनक्षत्रादिलोकानां विषयग्रहणशीलानां देहस्थानामिन्द्रियाणां वा (स्थातः) अधिष्ठातः, हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (ते) तव (पूर्व्यस्तुतिम्) श्रेष्ठां स्तुतिम् (न किः) न कोऽपि (शवसा) बलेन (न भन्दना) न कल्याणेन। [भदि कल्याणे सुखे च भ्वादिः। भन्दनेन इति प्राप्ते, ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इत्यनेन विभक्तेराकारादेशः] (उदानंश२) अतिक्रामति ॥२॥
जगदीश्वरादधिको बलवान् बलप्रदः कल्याणवान् कल्याणकर्ता च जगतीतले कश्चिन्नास्ति ॥२॥