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इ꣣मे꣡ हि ते꣢꣯ ब्रह्म꣣कृ꣡तः꣢ सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ म꣢धौ꣣ न꣢꣫ मक्ष आ꣡स꣢ते । इ꣢न्द्रे꣣ का꣡मं꣢ जरि꣣ता꣡रो꣢ वसू꣣य꣢वो꣣ र꣢थे꣣ न꣢꣫ पाद꣣मा꣡ द꣢धुः ॥१६७६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इमे हि ते ब्रह्मकृतः सुते सचा मधौ न मक्ष आसते । इन्द्रे कामं जरितारो वसूयवो रथे न पादमा दधुः ॥१६७६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣣मे꣢ । हि । ते꣣ । ब्रह्मकृ꣡तः꣢ । ब्र꣣ह्म । कृ꣡तः꣢꣯ । सु꣣ते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । म꣡धौ꣢꣯ । न । म꣡क्षः꣢꣯ । आ꣡स꣢꣯ते । इ꣡न्द्रे꣢꣯ । का꣡म꣢꣯म् । ज꣣रिता꣡रः꣢ । व꣣सूय꣡वः꣢ । र꣡थे꣢꣯ । न । पा꣡द꣢꣯म् । आ । द꣣धुः ॥१६७६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1676 | (कौथोम) 8 » 2 » 6 » 2 | (रानायाणीय) 18 » 2 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा की उपासना का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे जगदीश्वर ! (इमे हि) ये (ते) तेरे लिए (ब्रह्मकृतः) स्तोत्र-पाठ करनेवाले उपासक (सुते) उपासना-यज्ञ में (सचा) एक साथ मिलकर (आसते) बैठे हुए हैं, (मधौ न) शहद के छत्ते पर जैसे (मक्षः) मधु-मक्खियाँ (सचा) मिलकर (आसते) बैठी होती हैं। (वसूयवः) अध्यात्म धन के इच्छुक (जरितारः) स्तोता गण (इन्द्रे) परमैश्वर्यशाली तुझ जगदीश्वर में (कामम्) अपनी अभिलाषा को (आदधुः) रखे हुए हैं, संजोये हुए हैं, (वसूयवः) भौतिक धन के इच्छुक लोग (रथे न) जैसे रथ में (पादम्) अपना पैर रखते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मधु बनानेवाली मधुमक्खियाँ जैसे मधु के छत्ते पर बैठती हैं, वैसे ही उपासना करनेवाले लोग उपासनागृह में बैठते हैं और जैसे भौतिक धन-धान्य आदि अन्य स्थान से लाने के इच्छुक लोग रथ में अपना पैर रखते हैं, वैसे ही सत्य, अहिंसा, योगैश्वर्य आदि के अभिलाषी लोग परमात्मा में अपनी कामना को रख देते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मोपासनाविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे जगदीश ! (इमे हि) एते खलु (ते) तुभ्यम् (ब्रह्मकृतः) स्तोत्रपाठकर्तारः उपासकाः (सुते) उपासनायज्ञे (सचा) संभूय (आसते) उपविशन्ति, (मधौ न मक्षः) मधुमक्षिका यथा मधुगोलके तिष्ठन्ति। (वसूयवः) अध्यात्मधनेच्छुकाः (जरितारः) स्तोतारः (इन्द्रे) परमैश्वर्यशालिनि जगदीश्वरे त्वयि (कामम्) अभिलाषम् (आदधुः) आदधति, (वसूयवः) भौतिकधनाभिलाषिणो जनाः (रथे न) रथे यथा (पादम्) चरणम् आदधति ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मधुकृतो मधुमक्षिका यथा मधुगोलके तिष्ठन्ति तथैवोपासनाकर्तारो जना उपासनागृहे तिष्ठन्ति। यथा च भौतिकं धनधान्यादिकं स्थानान्तरादानेतुकामा जना रथे स्वपादं निदधति तथैव सत्याहिंसायोगैश्वर्यादिकामा जनाः परमात्मनि स्वकाममादधति ॥२॥