इ꣣दं꣢꣫ विष्णु꣣र्वि꣡ च꣢क्रमे त्रे꣣धा꣡ नि द꣢꣯धे प꣣द꣢म् । स꣡मू꣢ढमस्य पाꣳसु꣣ले꣢ ॥१६६९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूढमस्य पाꣳसुले ॥१६६९॥
इ꣣द꣢म् । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । वि । च꣣क्रमे । त्रेधा꣢ । नि । द꣣धे । पद꣢म् । स꣡मू꣢꣯ढम् । सम् । ऊ꣣ढम् । अस्य । पाꣳसुले꣢ ॥१६६९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २२२ क्रमाङ्क पर परमेश्वर और सूर्य के विषय में की जा चुकी है। यहाँ परमेश्वर का विषय कहा जा रहा है।
(विष्णुः) सर्वान्तर्यामी परमेश्वर (इदम्) इस ब्रह्माण्ड वा मानव-शरीर में (विचक्रमे) व्याप्त है। उसने (त्रेधा) तीन स्थानों में अर्थात् पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ में तथा शरीर के प्राण, मन और आत्मा में (पदम्) पग (निदधे) रखा हुआ है। तो भी (अस्य) इस परमेश्वर का वह पग (पांसुले) धूलि के ढेर में (समूढम्) छिपे हुए के समान है, अर्थात् चर्म- चक्षुओं से दिखाई नहीं देता है ॥१॥ यहाँ लुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
यहाँ निराकार भी परमेश्वर में पग रखने का वर्णन गौण है। अभिप्राय यह है कि जैसे कोई देहधारी कदम भर कर भूमि के किसी प्रदेश को अपने अधीन कर लेता है, वैसे ही जगदीश्वर ने सारे ब्रह्माण्ड को और सारे मानवदेह को अपने अधीन किया हुआ है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २२२ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये सूर्यविषये च व्याख्याता। अत्र परमेश्वरविषय उच्यते।
(विष्णुः) सर्वान्तर्यामी परमेश्वरः (इदम्) एतद् ब्रह्माण्डम् मानवशरीरं वा (विचक्रमे) व्याप्तवानस्ति। (त्रेधा) त्रिषु स्थानेषु—पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवि च, यद्वा शरीरस्य प्राणे, मनसि, आत्मनि च (पदम्) चरणम् (निदधे) निहितवानस्ति। तथापि (अस्य) परमेश्वरस्य तत् पदम् (पांसुले) धूलिराशौ (समूढम्) प्रच्छन्नमिवास्ति, चर्मचक्षुर्भिर्न दृश्यत इत्यर्थः ॥१॥२ अत्र लुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥
अत्र निराकारेऽपि परमेश्वरे पादन्यास उपचर्यते। यथा कश्चिद् देहधारी पादविक्षेपेण भूमेः कमपि प्रदेशं स्वायत्तीकरोति तथा जगदीश्वरः सर्वमपि ब्रह्माण्डं सर्वमपि मानवदेहं च स्वायत्तीकृतवानित्यभिप्रायः ॥१॥